Hindi, asked by janifermattoo8, 7 hours ago

नीलकंठ कहानी में कुल कितनी मोरनी थी​

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Answered by kasifanaaz3
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लेखिका: महादेवी वर्मा

प्रयाग जैसे शान्त और सांस्कृतिक आश्रम-नगर में नखास कोना एक विचित्र स्थिति रखता है. जितने दंगे-फसाद ओर छुरे चाकुबाजी की घटनाएं घटित होती हैं, सबका अशुभारम्भ प्रायः नखासकोने से ही होता है.

उसकी कुछ और भी अनोखी विशेषताएं हैं. घास काटने की मशीन के बड़े-चौड़े चाकू से लेकर फरसा, कुल्हाड़ी, आरी, छुरी आदि में धार रखने वालों तक की दुकानें वहीं हैं. अतः गोंठिल चाकू-छुरी को पैना करने के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं है. आंखों का सरकारी अस्पताल भी वहीं प्रतिष्ठित है. शत्रु-मित्र की पहचान के लिए दृष्टि कमज़ोर हो तो वहां ठीक कराई जा सकती है, जिससे कोई भूल होने की सम्भावना न रहे. इसके अतिरिक्त एक और अस्पताल उसी कोने में गरिमापूर्ण ऐतिहासिक स्थिति रखता है. आहत, मुमूर्ष व्यक्ति की दृष्टि से यह विशेष सुविधा है. यदि अस्पताल के अन्तःकणों में स्थान न मिले, यदि डॉक्टर, नर्स आदि का दर्शन दुर्लभ रहे तो बरामदे-पोर्टिको आदि में विश्राम प्राप्त हो सकता है और यदि वहां भी स्थानाभाव हो, तो अस्पताल के कम्पाउण्ड में मरने का संतोष तो मिल ही सकता है.

हमारे देश में अस्पताल, साधारण जन को अन्तिम यात्रा में संतोष देने के लिए ही तो हैं. किसी प्रकार घसीटकर, टांगकर उस सीमा-रेखा में पहुंचा आने पर बीमार और उसके परिचारकों को एक अनिर्वचनीय आत्मिक सुख प्राप्त होता है. इससे अधिक पाने की न उसकी कल्पना है, न मांग. कम-से-कम इस व्यवस्था ने अंतिम समय मुख में गंगाजल, तुलसी, सोना डालने की समस्या तो सुलझा ही दी है.

यहां मत्स्य क्रय-विक्रय केन्द्र भी है और तेल-फुलेल को दुकान भी, मानो दुर्गन्ध-सुगन्ध में समरसता स्थापित करने का अनुष्ठान है.

पर नखासकोने के प्रति मेरे आकर्षण का कारण, उपयुक्त विशेषताएं नहीं हैं. वस्तुत: वह स्थान मेरे खरगोश, कबूतर, मोर, चकोर आदि जीव-अन्तुओं का कारागार भी है. अस्पताल के सामने की पटरी पर कई छोटे-छोटे घर और बरामदे हैं, जिनमें ये जीव-जन्तु तथा इनके कठिन हृदय जेलर दोनों निवास करते हैं.

छोटे-बड़े अनेक पिंजरे बरामदे में और बाहर रखे रहते हैं, जिनमें दो खरगोशों के रहने के स्थान में पच्चीस और चार चिड़ियों के रहने के स्थान में पचास भरी रहती हैं. इन छोटे जीवों को हंसने-रोने के लिए भिन्न ध्वनियां नहीं मिली हैं. अतः इनका महा-कलरव महा-क्रन्दन भी हो तो आश्चर्य नहीं. इन जीवों के कष्ठनिवारण का कोई उपाय न सूझ पाने पर भी मैं अपने आपको उस ओर जाने से नहों रोक पाती. किसी पिंजड़े में पानी न देखकर उसमें पानी रखवा देती हूं. दाने का अभाव हो तो दाना डलवा देती हूं. कुछ चिड़ियों को ख़रीदकर उड़ा देती हूं. जिनके पंख काट दिए गए हैं, उन्हें ले आती हूं. परन्तु फिर जब उस ओर पहुंच जाती हूं, सब कुछ पहले जैसा ही कष्ट-कर मिलता है.

उस दिन एक अतिथि को स्टेशन पहुंचाकर लौट रही थी कि चिड़ियों और खरगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और मैंने ड्राइवर को उसी ओर चलने का आदेश दिया.

बड़े मियां चिड़ियावाले की दुकान के निकट पहुंचते ही उन्होंने सड़क पर आकर ड्राइवर को रुकने का संकेत दिया. मेरे कोई प्रश्न करने के पहले ही उन्होंने कहना आरम्भ किया,“सलाम गुरुजी! पिछली बार आने पर आपने मोर के बच्चों के लिए पूछा था. शंकरगढ़ से एक चिड़ीमार दो मोर के बच्चे पकड़ लाया है, एक मोर है, एक मोरनी. आप पाल लें. मोर के पंजों से दवा बनती है, सो ऐसे हो लोग ख़रीदने आए थे. आख़िर मेरे सीने में भी तो इन्सान का दिल है. मारने के लिए ऐसी मासूम चिड़ियों को कैसे दे दूं. टालने के लिए मैंने कह दिया, गुरुजी ने मंगवाए हैं. वैसे यह कम्बख़्त रोज़गार ही ख़राब है. बस, पकड़ो पकड़ो, मारो-मारो.”

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