History, asked by maahira17, 11 months ago

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए :
स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? चर्चा कीजिए।

Answers

Answered by nikitasingh79
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स्तूप क्यों बनाए जाते थे :  

स्तूप को बुद्ध और बौद्ध धर्म के प्रतिक के रूप में जाना जाता है। अशोकावादन नामक बौद्ध धर्म के अनुसार, अशोक ने बुद्ध के अवशेषों को सभी महत्वपूर्ण शहर में बांटकर उनके उपर स्तूप बनाने का आदेश दिया।  

ईसा पूर्व दूसरी सदी तक भरहुत, सांची और सारनाथ आदि स्थानों पर स्तूप बनाए जा चुके थे । इससे लोगों की बौद्ध आस्था भी प्रकट होती थी।

स्तूप की संरचना :  

स्तूपों के निर्माण एवं सजावट की जानकारी , स्तूपों की वेदिकाओं एवं स्तम्भों पर मिले अभिलेखों में दान की चर्चा से मिलती है। कुछ दान राजाओं के द्वारा तो कुछ दान शिल्पकारों  एवं व्यापारियों की श्रेणियों द्वारा दिए जाते थे। प्रारंभ में स्तूप अर्द्ध गोलाकार मिट्टी का टीला था, जिसे अंड कहा जाता था । बाद में इसे कई चौकोर और गोल आकारों के संतुलन से जटिल रूप दिया गया । अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी।  

यह छज्जे की तरह ढांचा देवताओं के घर का प्रतीक था । हर्मिका से छतरी लगी मस्तूल निकलती थी, जिसे यष्टि कहा जाता था । स्तूप के चारों ओर एक वेदिका होती थी, जो एक पवित्र स्थल होता।

पत्थर की वेदिकाएं तथा तोरणद्वार के अतिरिक्त सांची और भरहुत के स्तूपों में कोई अलंकरण नहीं है।वेदिकाएं बांस अथवा लकड़ी के घेरे की होती थी तथा चारों ओर स्थित तोरणद्वार पर अत्यधिक नक्काशी की गई थी । पूर्वी तोरण द्वार से उपासक प्रवेश कर स्तूप  के दक्षिणावर्त परिक्रमा करते थे। बाद के कालों में स्तूपों पर भी अलंकरण तथा नक्काशी की जाने लगी। स्तूपों में ताखे और मूर्तियां उत्कीर्ण करने की कला अमरावती और पेशावर (पाकिस्तान) में शाहजी की ढेरी में देखने को मिलती है।

आशा है कि यह उत्तर आपकी अवश्य मदद करेगा।।।।

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Answered by mda514055
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Answer:

स्तूप संस्कृत का एक शब्द है, जिसका अर्थ है-‘ढेर’। सामान्यतः स्तूप महात्मा बुद्ध अथवा किसी अन्य पवित्र भिक्षु के अवशेषों, जैसे-दाँत, भस्म आदि अथवा किसी पवित्र ग्रंथ पर बनाए जाते थे। अवशेष स्तूप के केंद्र में बनाए गए एक छोटे-से कक्ष में एक पेटिका में रख दिए जाते थे। स्तूप बनाने की परम्परा संभवतः बुद्ध से पहले ही प्रचलित रही होगी, किन्तु स्तूपों को बुद्ध और बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में विशेष प्रसिद्धि मिली। ‘अशोकावदान’ नामक बौद्धग्रन्थ से उल्लेख मिलता है कि मौर्य सम्राट अशोक ने महात्मा बुद्ध के अवशेषों के भाग प्रत्येक महत्त्वपूर्ण शहर में बाँटकर उन पर स्तूप बनाने का आदेश दिया था। दूसरी शताब्दी ई०पू० तक भरहुत, साँची और सारनाथ जैसे स्थानों पर महत्त्वपूर्ण स्तूप बनवाए जा चुके थे। स्तूप कैसे बनाए जाते थे? स्तूप प्राय: दान के धन से बनाए जाते थे।

स्तूप बनाने के लिए दान राजाओं (जैसे सातवाहन वंश के राजा), धनी व्यक्तियों, शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों और यहाँ तक कि भिक्षुओं और भिक्षुणियों के द्वारा भी दिए जाते थे। स्तूपों की वेदिकाओं तथा स्तंभों पर मिले अभिलेखों से इनके निर्माण और सजावट के लिए दिए जाने वाले दान का उल्लेख मिलता है। अभिलेखों में दानदाताओं के नामों और कभी-कभी उनके ग्रामों अथवा शहरों के नामों, व्यवसायों और संबंधियों के नामों का भी उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, साँची स्तूप के एक प्रवेशद्वार का निर्माण विदिशा के हाथीदाँत का काम करने वाले शिल्पकारों के संघ द्वारा करवाया गया था। स्तूप की निर्माण योजनानीचे एक गोलाकार आधार पर एक अर्द्धगोलाकार गुंबद बनाया जाता था, जिसे अंड कहा जाता था। अंड के ऊपर एक और संरचना होती थी जिसे हर्मिका कहा जाता था। हर्मिका, छज्जे जैसी संरचना होती थी, जिसका निर्माण ईश्वर के आसन के रूप में किया जाता था।

हर्मिका के ऊपर एक सीधा खंभा होता था, जिसे यष्टि कहा जाता था। इसके ऊपर छतरी लगी होती थी जिसे छतरावलि कहा जाता था। पवित्र स्थल को सांसारिक स्थान से पृथक् करने के लिए इसके चारों ओर एक वेदिका बना दी जाती थी। साँची और भरहुत के स्तूपों में किसी प्रकार की साज-सज्जा नहीं मिलती। उनमें केवल पत्थर की वेदिकाएँ और तोरणद्वार हैं। पत्थर की वेदिकाएँ लकड़ी अथवा बाँस के घेरे के समान थीं। चारों दिशाओं में बनाए गए तोरणद्वारों पर सुन्दर नक्काशी की गई थी। भक्तजन पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके सूर्य के पथ का अनुसरण करते हुए परिक्रमा करते थे। कालांतर में स्तूप के टीले को भी ताखों एवं मूर्तियों से अलंकृत किया जाने लगा। अमरावती और पेशावर के (आधुनिक पाकिस्तान में शाहजी-की-ढेरी) स्तूप इसके सुंदर उदाहरण हैं।

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