Hindi, asked by nageshwarmewati12345, 1 month ago

नैतिक मूल्य और राष्ट्र निर्माण इस विषय पर विस्तार से लिखिए

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Answered by Ikaaskhan
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एक व्यक्ति की प्राथमिक पाठशाला उसका अपना परिवार होता है और परिवार समाज का एक अंग है जहाँ हमें सबसे पहले शिक्षा मिलती है| परिवार और समाज के अनुरूप ही एक व्यक्ति में सामाजिक गुणों तथा विशेषताओं का विकास होता है| आज हमारे समाज का स्वरूप तेजी से परिवर्तित हो रहा है, ये भी सही है कि परिवर्तन इस संसार का नियम है लेकिन जिस तरह से हमारे समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है, वो सही नहीं है|

प्राचीन काल में पाठशालाओं में धार्मिक और नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग थे| अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा नीति को धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा से बिलकुल अलग रखा, उन्होंने राज्य द्वारा संचालित विद्यालयों में इस शिक्षा को पूर्ण रूप से बंद करके धार्मिक तटस्थता की नीति का अनुसरण किया| स्वतन्त्र भारत में भी देश को धर्म निरपेक्ष घोषित कर कहा गया कि राज्यकोष से चलाई जाने वाली किसी भी संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी| हरबर्ट के अनुसार- “नैतिक शिक्षा, शिक्षा से पृथक नहीं है जहाँ तक नैतिकता धर्म का अर्थ है इन दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है| इस बात को इस प्रकार कहा जा सकता है कि धर्म के बिना नैतिकता का और नैतिकता के बिना धर्म का अस्तित्व नहीं है|”

किसी भी व्यक्ति में नैतिक मूल्यों का होना ही धर्म है, नैतिक मूल्यों के अनुरूप आचरण ही उसे चरित्रवान बनाता है| दूसरे शब्दों में नैतिक मूल्यों का पालन ही सदाचार है| सदाचार व्यक्ति को देवत्व की ओर ले जाता है और दुराचार से पशु बना देता है| राम, कृष्ण, गौतम बुद्ध एवं विवेकानंद साक्षात ईश्वर इसलिए माने जाते हैं क्योंकि इनके कर्म नैतिक मूल्यों के अनुरूप थे| उनमें चरित्र-बल था, सच्चरित्रता थी| नैतिक मूल्यों- सत्यप्रियता, त्याग, उदारता, विनम्रता, करुणा, ह्रदय की सरलता और अभिमान हीनता के बारे में सभी को पता है पर इन मूल्यों के अनुरूप आचरण करने वाले या ये कहें कि अपने जीवन में इसे उतारने वाले व्यक्तियों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है| इसका मुख्य कारण जो मुझे समझ में आ रहा है वो ये है कि आज का व्यक्ति समाज की अनदेखी कर रहा है, वो स्वयं को महत्व ज्यादा दे रहा है और समाज को कम| समाज भी व्यक्ति के सही-गलत आचरण के प्रति तटस्थ रवैया अपना रहा है|

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Answered by TanishaMuchhal
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Answer:

शब्द नैतिकता प्राचीन ग्रीक शब्द एथोस से बना है जिसका अर्थ है आदत, कस्टम या चरित्र। वास्तविकता में नैतिकता यह है। एक व्यक्ति की आदतें और चरित्र उन नैतिक मूल्यों के बारे में बताते हैं जो उसके पास हैं। दूसरे शब्दों में एक व्यक्ति के नैतिक मूल्य उसके चरित्र को परिभाषित करते है। हम सभी को समाज द्वारा निर्धारित नैतिक मानदंडों के आधार पर क्या अच्छा है और क्या बुरा है इसके बारे में बताया गया है।

नैतिकता की फिलोस्फी

नैतिकता की फिलोस्फी जितनी सतह स्तर पर दिखाई देती है वास्तविकता में वह बहुत गहरी है। यह नैतिकताओं के तीन भागों में विभाजित है। ये मानक नैतिकता, लागू नैतिकता और मेटा-नैतिकता हैं। इन तीन श्रेणियों पर यहां एक संक्षिप्त नज़र डाली गई है:

मानक नैतिकता: यह नैतिक निर्णय की सामग्री से संबंधित है। यह अलग-अलग परिस्थितियों में कार्य करने के तरीकों पर विचार करते समय उत्पन्न होने वाले प्रश्नों का विश्लेषण करता है।

लागू नैतिकता: इस प्रकार की नैतिकता एक ऐसे व्यक्ति के बारे में निर्धारित मानकों का विश्लेषण करती है जो किसी स्थिति में व्यक्ति को उचित व्यवहार करने की अनुमति देता है । यह विवादास्पद विषयों जैसे पशु अधिकार और परमाणु हथियारों से संबंधित है।

मेटा नैतिकता: इस प्रकार की नैतिकता यह सिखाती है कि हम सही और गलत की अवधारणा को कैसे समझते हैं और हम इसके बारे में क्या जानते हैं। यह मूल रूप से नैतिक सिद्धांतों के उत्पत्ति और मौलिक अर्थ को देखता है।

जहाँ नैतिक यथार्थवादियों का मानना है कि व्यक्ति पहले से मौजूद नैतिक सत्यों को मानते हैं वहीँ दूसरी तरफ गैर-यथार्थवादियों का मानना है कि व्यक्ति अपने स्वयं की नैतिक सच्चाई को खोजते और ढूंढते हैं। दोनों के पास अपने विचारों को सत्य साबित करने के अपने तर्क है।

निष्कर्ष

ज्यादातर लोग समाज द्वारा परिभाषित नैतिकता का पालन करते हैं। वे नैतिक मानदंडों के अनुसार अच्छे माने जाने वालों को मानते हैं और इन मानदंडों को ना मानने वालों से दूर रहना चाहते हैं। हालांकि ऐसे कुछ ऐसे लोग हैं जो इन मूल्यों पर सवाल उठाते हैं और वे सोचते हैं कि क्या सही है और क्या गलत है।

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