Narrottam das ne sudama charit ki rachna kis chhand me ki
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सुदामा चरित के लेखक कविवर नरोत्तमदास का जन्म सीतापुर जिले के 'बाड़ी' नामक ग्राम में हुआ था। इनके माता पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके समय के विषय में 'शिवसिंह सरोज' में लिखा है कि संवत 1602 में ये अवश्य वर्तमान थे। इसी के आधार पर विद्वानों ने अनेक संकल्पनाएँ की हैं। परन्तु इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि विशेष सामग्री उपलब्ध न होने के कारण इनके जन्म और मरण की निश्चित तिथि नहीं दी जा सकती। जिस हस्तलिखित प्रति के आधार पर इस संस्करण की रचना की गई है वह पं. बालकराम दुबे सीतापुर जिलान्तरगत 'बरेड़ी' अथवा 'बोड़ी' नामक ग्राम के निवासी द्वारा लिखी गई थी। इस प्रति पर सम्वत 1663 माघ मास सुदी पश्चिमी अंकित है। यह प्रति मुझे अपने परम मित्र शिवदास अवस्थी उन्नाव जिले के सुमेरपुर ग्राम के निवासी की कृपा से देखने को मिली थी। अत: मुख्यांश में इसके लिए मैं उन्हीं का कृतज्ञ हूँ। भली-भाँति देखने से यह हस्तलिखित प्रति वास्तव में अति प्राचीन ठहरती है तथा इससे अधिक प्राचीन प्रति अभी तक मेरे देखने में नहीं आई।
मध्य-युग के इस छोटे से काव्य में कथा का अंश विशेष बड़ा नहीं। यह कहना अनुचित होगा कि कविवर नरोत्तमदास ने इस कथा को केवल अपने ही मन से गढ़ा था। कृष्ण और सुदामा की मैत्री तो पुराण प्रसिद्ध एक प्राचीन आख्यान ही है। कविवर नरोत्तमदास ने उसे ब्रज भाषा के साँचे में ढाल दिया है। अत्यंत दीन ब्राह्मण सुदामा एक दिन सहसा अपनी स्त्री से कृष्ण की मैत्री का वर्णन कर बैठते हैं। इसी समय से पति-परायणा ब्राह्मणी उन्हें कृष्ण के पास जाकर भेंट करने के लिए प्रेरित करने लगती है। इच्छा न रहते हुए भी त्रिया हठ के सामने ब्राह्मण को झुकना पड़ता है। सुदामा द्वारका के लिए प्रस्थान करते हैं। दैन्य का संकोच, दुर्बल शरीर का मंजिलें तै करना, तथा अंतरनिहित आत्म-सम्मान की स्वाभाविक भावना पग-पग पर सजीव होकर सामने आ जाती है। मित्र से मिलने के लिए कृष्ण की आतुरता, उनका वह हार्दिक स्नेह और पवित्र प्रेम नेत्रों से निकल कर परात में उमड़ पड़ता है। उनका वह सर्वस्व दान तथा थोड़ा सा मज़ाक भी इस छोटी सी कहानी में जान डाल देता है।
ग़रीबी की मुसीबतें, ब्राह्मणत्व का आत्म-सम्मान एवं त्याग और संतोष सुदामा के चरित्र की विशेषताएँ हैं। इनका अंतरद्वंद्व एवं जीवन की सादगी और उसका भोलापन काव्य में आदि से अंत तक एक से निभ जाते हैं। ब्राह्मणी की आतुरता किंतु पति के प्रति उसका शील तथा उसकी विनय भी कम सराहनीय नहीं है। दो अभिन्न हदय मित्रों की भेंट तथा उनके ह्रदय की कोमलता का स्वाभाविक और सजीव चित्रण पत्थर को भी पिघला कर पानी कर सकता है। शान्त और करुण रस प्रधान यह छोटा से खण्ड-काव्य मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की एक अमूल निधि है। सरलता और माधुर्य; यही इस काव्य की विशेषताएँ हैं। हाँ कहीं-कहीं छन्दों में और विशेषकर वस्तु वर्णन में कुछ शिथिलता देख पड़ती है। परन्तु जहाँ मानव-भावनाओं का चित्रण है वे स्थल तो कवि की लेखनी के जीते जागते चित्रण हैं।
इसके बाद और भी कुछ कवियों ने इसके अनुकरण करने की चेष्टा की परन्तु सफल नहीं हो सके। आधुनिक युग में भी कुछ कवियों ने व्यर्थ चेष्टा अनुकरण की की है परन्तु वे इसकी छाँह तक नहीं छू पाते। प्रस्तुत पुस्तक के मुख्यत: दो संस्करण देखने में आते हैं। (1) पहला तो भार्गव बुक डिपो बनारस से छपा है तथा (2) ओझा बंधु आश्रम प्रयाग से। मैंने यथा सम्भव चेष्टा की है कि उपर्युक्त हस्तलिखित प्रति के आधार पर इस संस्करण को लिखते हुए भी उन संस्करणों के अंशों के भिन्न पाठ देता जाऊँ। अत: टिप्पणियों में (1) को मैंने (भा.प्र.) तथा (2) को (ओ.प्र.) के संकेत से लिखा है।
मूल काव्य की स्वाभाविक सरलता के कारण इस संस्करण में मैंने विशेष टिप्पणियों की आवश्यकता नहीं समझी है अत: पाठकगण क्षमा करेंगे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय