ऑनलाइन अध्ययन पर अपने सकारात्मक विचार दे
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कोरोना संकट के दौर में शैक्षणिक संस्थानों के आगे जो चुनौती है उसमें ऑनलाइन एक स्वाभाविक विकल्प है. ऐसे समय में विद्यार्थियों से जुड़ना समय की ज़रूरत है, लेकिन इस व्यवस्था को कक्षाओं में आमने-सामने दी जाने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का विकल्प बताना भारत के भविष्य के लिए अन्यायपूर्ण है.
आज जिस तरह नई शिक्षा नीति और ऑनलाइन शिक्षा की बात की जा रही है, उसका इससे कोई संबंध नहीं है. उसका संबंध शिक्षा के निजीकरण के मॉडल से है, जिसकी जड़ में बिड़ला-अंबानी कमेटी की रिपोर्ट है. ऐसे में उसकी ऐतिहासिकता में जाने बिना इसे समझना संभव नहीं.
वैसे यह तथ्य भी बहुत मजेदार है कि शिक्षाविदों के द्वारा शिक्षा नीति बनाने की परंपरा जो राधाकृष्णन से चली आ रही थी, उसे खत्मकर बिड़ला-अंबानी जैसे पूंजीपतियों के नेतृत्व में शिक्षा नीति तैयार करने का निर्णय अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के द्वारा किया गया.
स्वाभाविक है कि इससे नजरिये में भी फर्क आना था सो आया. पहली बार शिक्षा के क्षेत्र को अरबों-खरबों डॉलर के वैश्विक-बाजार के तौर पर पहचाना गया. सुझाव दिया गया कि इस क्षेत्र को व्यवसाय यानी मुनाफा कमाने का धंधा घोषित किया जाए.
शिक्षा अपने मूल में सामाजीकरण की एक प्रक्रिया है. जब-जब समाज का स्वरूप बदला शिक्षा के स्वरूप में भी परिवर्तन की बात हुई. आज कोरोना संकट के दौर में ऑनलाइन शिक्षा के जरिये शिक्षा के स्वरूप में बदलाव का प्रस्ताव नीति निर्धारकों के द्वारा पुरजोर तरीके से रखा जा रहा है.
ऐसे में यह देखना जरूरी है कि समाज की संरचना और उसके उद्देश्य में ऐसा कौन-सा मूलभूत परिवर्तन हो गया है कि इसे अवश्यंभावी बताया जा रहा है. आजादी के बाद स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित राष्ट्रीयता वाला सार्वभौमिक शिक्षा का मॉडल क्या अब किसी काम के लायक नहीं बचा?