Hindi, asked by sujalbisht30p8vrx5, 9 months ago

पाकिस्तान में पल रहे आतंक के ऊपर निबंध लिखें

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Answered by masterAryanDixit
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भारत को “हजारों जख्म देकर लहुलुहान करने” की पाकिस्तानी रणनीति को धार्मिक भावनाओं का फायदा उठाकर तथा साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर उन्माद भड़काकर लागू किया जाता रहा है।

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26/11 के मुम्बई हमले पाकिस्तान के जेहादी गुटों तथा उसके सैन्य-खुफिया तंत्र की भारत पर चोट करने और उसे नुकसान पहुंचाने की रणनीतिक संस्कृति का स्पष्ट प्रदर्शन था। पाकिस्तान अपने सब नेशनल गुटों (सरकार की सहायता प्राप्त) द्वारा चलाए जा रहे जेहाद का इस्तेमाल एक हथियार के तौर पर करता है, जो उसे अपने भूराजनीतिक वजन से बढ़कर वार करने की इजाजत देते हैं। [1] पाकिस्तान के रणनीतिक चिंतन से जुड़ा एक वर्ग इस झूठे विचार पर यकीन करता है कि अपने देश की हिफाजत सिर्फ भारत को कमजोर बनाकर, पराजित कर या वहां लगातार अफरा-तफरी के हालात बनाकर की जा सकती है। पाकिस्तान सरकार का मानना है कि वह आतंकवादियों को सहायता देकर ऐसा कर पाना मुमकिन है। वह यह सुनिश्चित करती है कि जब भी कोई आतंकवादी गुट हमलों को अंजाम दें, पाकिस्तानी सरकार विश्वसनीय ढंग से उसे अस्वीकार करे।

भारत को “हजारों जख्म देकर लहुलुहान करने” की पाकिस्तानी रणनीति को धार्मिक भावनाओं का फायदा उठाकर तथा साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर उन्माद भड़काकर लागू किया जाता रहा है। कश्मीर में 1989 में छद्म युद्ध छेड़ने से पहले, पाकिस्तान ने पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय इलाकों का फायदा उठाया और पंजाब के असंतुष्ट नौजवानों का फायदा उठाकर उन्हें एक नया सिख राष्ट्र — खालिस्तान बनाने के लिए युद्ध छेड़ने के लिए उकसाया। पंजाब में सिख आतंकवाद को समर्थन देकर उसे उम्मीद थी कि वह भारतीय सुरक्षा बलों को उलझाए रखेगा और कश्मीर की रक्षा से उनका ध्यान हट जाएगा। जब भारत ने खालिस्तानी आंदोलन को कुचल दिया, तो पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर ध्यान देना, राज्य में अस्थिरता पैदा कर भारत सरकार की ताकत की पड़ताल करना शुरु कर दिया।

पंजाब में सिख आतंकवाद को समर्थन देकर उसे उम्मीद थी कि भारतीय सुरक्षा बलों को उलझाए रखेगा और कश्मीर की रक्षा से उनका ध्यान हट जाएगा।

1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले के साथ ही, सीआईए और सऊदी अरब की सहायता प्राप्त इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस एजेंसी या आईएसआई ने सोवियत लोगों के खिलाफ जेहाद लड़ने के लिए अफगानिस्तान तथा सीमावर्ती पाकिस्तानी कबायली इलाकों में इस्लामी आतंकवादियों को प्रश्रय और समर्थन देना शुरु कर दिया। उस समय न सिर्फ 10 लाख से ज्यादा अफगान शरणार्थियों को जंग से बचने के लिए पलायन करना पड़ा और डूरंड रेखा पार कर पड़ोसी देश पाकिस्तान में दाखिल होना पड़ा, बल्कि हजारों मुजाहिदीन लड़ाकों ने खुद को — हालांकि अस्थायी तौर पर ही सही — सोवियत लोगों पर फतह के बाद बेमकसद या शत्रु के बिना पाया। मादक पदार्थों और हथियारों की युद्धकालीन अर्थव्यवस्था इस क्षेत्र की बहुमूल्य मुद्रा बन गई और कबायली शरणार्थी शिविर सुगम भर्ती स्थल बन गए। [2] एक महाशक्ति की नियमित सेना पर अपनी फतह से उत्साहित होकर यह विचार बल प्राप्त करने लगा कि आतंकवादी अभियानों से मजबूत राष्ट्रों को हराया जा सकता है।

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