प्राचीन भारत को पर्यावरणीय पकर्षण के प्रमाण
मिलते है हायता के दर्शनाच्या
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इतिहास निरन्तर चलने वाली वह अनवरत प्रक्रिया है जिसमें वर्तमान में घटित समस्त घटनाएं भूतकाल में पहुचते ही इतिहास की विषयवस्तु बन जाती है। इतिहास देश और काल की सीमा में आबद्ध होता है तथा देश एवं काल का एक प्राकृतिक परिवेश होता है। प्रकृति एवं पर्यावरण के दायरे में सिमट कर ही घटनाएँ निरन्तर इतिहास की विषयवस्तु बनती रहती है। अतः यह एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो प्रकृति एवं पर्यावरण से इतर नहीं होती है। विकास-ह्यस, उन्नत-अवनत, उत्थान-पतन, प्रकृति के शाश्वत् नियम हैं जिसमें निहित तथ्य ही इतिहास के निर्माण में सहायक होती है। पृथ्वी कर जीवन की उत्पत्ति एक महत्वपूर्ण घटना है। प्रकृति एवं पर्यावरण ही इसका मुख्य उत्तरदायी कारक है। मानव समस्त प्राणियों में सर्वाधिक बुद्धिजीवी के रूप में स्वीकार किया गया है। बुद्धिमता से उसने अपनी भूतकालीन घटित घटनाओं को पिरोने के लिए इतिहास रूपी वृक्ष को रोपण करने हेतु उत्प्रेरित किया है किन्तु कालान्तर में इसी बुद्धिमता ने पर्यावरण सम्बन्धी तत्वों के अतिशय दोहन एवं विदोहन से उसे क्षत्-विक्षत् कर दिया जिसका परिणाम वर्तमान समय में पर्यावरणीय समस्याओं के रूप में परिलक्षित होता है। वर्तमान युग में बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण, वनों की कटाई, वन्य जीवों का संहार तथा परमाणु परीक्षणों से पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है। इस प्रदूषण प्रसार के लिए मानवजनित कर्म ही उत्तरदायी है। पर्यावरण की शुद्धि न केवल सभ्यता एवं संस्कृति की प्रतीक होती है, अपितु हमारे शारीरिक, मानसिक आदि सभी के विकास हेतु भी आवश्यक होती है। प्राचीन काल में प्रदूषण की समस्या वर्तमान की भांति विकराल नहीं थी। फिर भी पर्यावरण के सन्दर्भ में ऋषियों मनीषियों का चिंतन व्यवहारिक एवं वैज्ञानिक था, और महत्वपूर्ण था।