प्रेमचंद के फटे जूते पाठ में वर्तमान समाज में व्याप्त कुरीतियां का वर्णन करते हुए इनका अनमूलन कर राष्ट्र निर्माण कैसे किया जा सकता है इस पर एक सचित्र परियोजना तैयार कीजिए
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प्रेमचंद के फटे जूते शीर्षक निबंध में परसाई जी ने प्रेमचंद के व्यक्तित्व की सादगी के साथ एक रचनाकार की अंतर्भेदी सामाजिक दृष्टि का विवेचन करते हुए आज की दिखावे की प्रवृत्ति एवं अवसरवादिता पर व्यंग्य किया है। लेखक प्रेमचंद जी का एक चित्र देखते हुए बताता है कि उन्होंने मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहनी हुई है। कनपटी पिचकी हुई और गालों की हड्डियाँ उभरी हुई थी परंतु घनी मूंछों से चेहरा भरा-सा लगता था। पैरों में केनवस के जूते हैं जिनमें से एक जूता आगे से फटा हुआ है। छेद से अँगुली बाहर निकली हुई थी। लेखक सोचता है कि फोटो के लिए ऐसी पोशाक है तो पहनते कैसे होंगे? लेकिन वे वास्तव में जैसे हैं, वैसे ही फोटों में हैं। वे प्रेमचंद के चेहरे को देखकर पूछते हैं कि उन्हें अपने फटे जूते का पता है, क्या उन्हें लज्जा या संकोच नहीं है? लेकिन उनके चेहरे पर बेपरवाही और विश्वास है। फोटो खींचते समय जब उन्हें तैयार होने के लिए कहा गया होगा तो उन्होंने मुस्कुराने का प्रयत्न किया होगा किंतु अभी मुस्कान आ ही रही थी कि फोटो खींच दी गई। उनकी इस अधूरी मुस्कान से उपहास और व्यंग्य झलकता है।
फोटो खिंचाना ही था तो जूते तो अच्छे पहन लेते। शायद पत्नी ने फोटो खिंचाने के लिए कहा होगा। लेखक उनकी फोटो के माध्यम से उन के दु:ख को अनुभव करके रोना चाहता है. लेकिन उनकी आँखों का दर्द उन्हें ऐसा करने स रोक देता है। यदि वे फोटो का महत्त्व समझते तो जूते माँग लेते। लोग तो कोट और कार तक माँग कर ले जाते हैं। लेखक व्यंग्य करते हुए कहता है कि लोग इत्र लगाकर खुशबूदार फोटो खिंचवाते हैं। उन्होंने बताया कि सिर की चीज सस्ती है जबकि पैरों की चीज उससे कहीं अधिक महंगी है। प्रेमचंद पर भी कुछ ऐसा ही भार रहा होगा। उनकी विडम्बना लेखक को दुख पहुँचा रही थी। एक महान कथाकार, उपन्यास सम्राट, युग-प्रवर्तक का जूता फटा हुआ देखकर उन्हें चुभन होती थी। लेखक कहता है कि उसका स्वयं का जूता ऊपर से न फटकर नीचे से फटा हुआ है। लेकिन पैर के जख्मी होने पर भी अंगुली दिखाई नहीं देगी। लेखक जैसे लोग वास्तविकता को आडम्बर के आवरण से ढकना चाहते है जबकि प्रेमचंद जैसा व्यक्तित्व सच्चाई और सादगी को अपनाने वाला है।
यहाँ लेखक प्रेमचंद जी के विषय में बातें कर रहे हैं कि वे बड़े शान से फटे जूते पहने हुए हैं जबकि लेखक ऐसे जूते कभी भी नहीं पहन सकता है। लेखक उनकी व्यंग्य-मुस्कान का अभिप्राय पूछता है। वह प्रेमचंद के कई पात्रों का सहारा लेकर अपने प्रश्न का उत्तर जानना चाहता है। लेखक जूते के फटने का कारण भी जानना चाहता है। वह अनुमान लगाता है कि ज्यादा चलने से ऐसा हुआ होगा। किंतु ज्यादा चलने से जूता फटता नहीं घिस जाता है। लेखक ने बताया कि भक्तिकाल के कवि कुंभनदास का जूता फतेहपुर सीकरी आने-जाने में घिस गया। वे कहते हैं कि आने-जाने में जूते घिस गए, जिस कारण भगवान का नाम भी लेना भूल गया हूँ। उन्होंने बुलाकर कुछ देने वालों के विषय में यह कहा कि जिनको देखने के लिए दु:ख उठाने पड़ते हैं, उन्हीं को सिर झुका कर नमस्कार भी करना पड़ता है।
लेखक बार-बार इसी प्रश्न पर विचार करता है कि प्रेमचंद का जूता घिसने की अपेक्षा फट कैसे गया? लेखक यहाँ कहना चाहता है कि उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों को अपनी ठोकरों से हटाने का प्रयास किया होगा, रास्ते की अड़चनों को उन्होंने जूते की ठोकर से हटाना चाहा होगा। वे उनसे बचकर भी जा सकते थे, परिस्थितियों से समझौता भी कर सकते थे। सभी नदियाँ पहाड़ नहीं फोड़ सकती, कुछ अपना रास्ता बदलकर बह जाती हैं। उन्हें भी ऐसा ही करना चाहिए था। लेकिन प्रेमचंद जी अपने जीवन-आदर्शों के कारण समझौता नहीं कर सके। वे भी अपने पात्रों की तरह नियमों का पालन करने वाले थे उनके नियम कभी भी उनके बंधन नहीं बने। लेखक यह अनुमान लगाता है कि वे जिसे घृणित समझते हैं उसकी तरफ पैर की अंगुली से इ
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