प्रार्थना परत उतारने की प्रक्रिया है। हमने संसार में रहते हुए अपने चेहरे पर, अपने व्यक्तित्व पर कई
परतें जमा ली हैं। प्रार्थना परमात्मा तक जाने के लिए द्वार के समान है। उस दिव्य शक्ति के सामने
छिपा हुआ चेहरा लेकर नहीं जा सकते। हम क्या हैं? यह बताने की क्रिया जगत में अलग होती है
और जगदीश के सामने अलग । हमारा मन पंसद काम नहीं हुआ,अपमान हुआ, तो हम क्रोधित हो
जाते हैं। "अभी बताता हूँ मैं क्या हूँ।" यह अकड़ का प्रदर्शन है, परिचय का नहीं, शब्दों की हिंसा है।
अध्यात्म जगत थोड़ा उल्टा चलता है। यहाँ जब यह कहा जाए कि जानते नहीं मैं कौन हूँ तो सबसे
पहले मैं ” गिर जाएगा। हमारा “मैं” दुनिया में तीन रुपों में प्रकट होता है - अकड़, हिंसा और
अहंकार । जबकि ये तीनों पानी के बुलबुले जैसे, ताश के पत्तों के महल के समान और कागज़ की नाव
की तरह होते हैं। एक दिन ये तीनों ढह जाएँगे, पर नुकसान पहुँचाकर। प्रार्थना यदि सच्ची रही तो
परमात्मा के सामने हमारा वह चेहरा प्रकट होगा, जो हमारे जन्म से पहले था और मृत्यु के बाद रहेगा।
बीच में जीते जी जो भी दुर्गुणों से लिपापुता हमने अपना चेहरा बनाया वह असत्य लेपन था । प्रार्थना
इसी की धुलाई है। प्रार्थना से जब हम अपने व्यक्तित्व को धोते हैं तब हम पवित्र होने लगते हैं और
पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। तीन चरण बना लें प्रार्थना के,पहला आरंभ में भीतर से विचार
शून्य हों, दूसरा मध्य में बाहर से समर्पण रखें और तीसरा समापन पर ज़रा मुस्कुराइए..।
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