प्रातःकाल का वातावरण कैसा दिखाई देता है?
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Explanation:
ek dum lalum top deekhta ha
‘अध्यात्मवेत्ता कहते हैं कि समस्त मनुष्य-समाज एक शरीर की तरह है और उसके घटकों को सहयोगी की तरह है और उसके घटकों को सहयोगी की तरह रहना पड़ता है। एक नाव में बैठने वाले साथ-साथ पार होते या डूबते हैं। मानवीय चरित्र और चिंतन यदि निकृष्टता के प्रवाह में बहेगा तो उसकी अवांछनीय प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत में विषाक्त विक्षोभ उत्पन्न करेगी और प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में उसका दंड सहन करना होगा। तरह-तरह के दैवी प्रकोप, संकट और त्रास अस्त-व्यस्त करके रख देंगे। अतएव हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी सज्जनता तक ही सीमित न रहे, वरन आगे बढ़कर सभ्यता के क्षेत्रों में व्याप्त अवांछनीयता को भी रोकने का प्रयत्न करे। जो इस सामूहिक धर्म की अवहेलना करता है, वह भी विश्व-व्यवस्था की अदालत में दोषी माना जाता है।’’
युग-परिवर्तन की संधिवेला :)
युग-परिवर्तन की घड़ी सन्निकट है। व्यक्ति में दुष्टता और समाज में भ्रष्टता जिस तूफानी गति से बढ़ रही है, उसे देखते हुए सर्वनाश की विभीषिका सामने खड़ी प्रतीत होती है। किंतु ऐसे ही विषम असंतुलन को समय-समय पर सुधारने सँभालने के लिए स्रष्टा की प्रतिज्ञा भी तो है। अपनी इस अनुपम कलाकृति, विश्व वसुधा को नियंता ने बड़े अरमानों के साथ बनाया है। संकटों की घड़ी आने पर उसका अवतरण होता है और असंतुलन फिर संतुलन में बदल जाता है। अधर्म को निरस्त और धर्म को आश्वस्त करने वाली ईश्वरीय सत्ता आज की संकटापन्न विषम वेला में उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अपनी अवतरण प्रक्रिया को फिर संपन्न करने वाली है।
यह आवश्यक क्यों उत्पन्न हुई? प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उत्तर एक ही है-इन दिनों व्यापक क्षेत्रों में जो असंतुलन में साध और ढाल सकता है। यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई? इसका उत्तर है कि धरती की व्यवस्था सँभालने का उत्तरदायित्व स्रष्टा ने मनुष्य को सौंपा है। साथ ही उसे इतना समर्थ शरीरतंत्र दिया है कि वह न केवल जीवधारियों के लिए सुख-शांति बनाए रहे वरन ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सके। अपने उस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य अनाचार और उद्दंडता बरतता है-चिंतन को भ्रष्ट और आचरण को दुष्ट बनाता है तो उसकी प्रतिक्रिया अदृश्य जगत का संतुलन बिगाड़ती है और विपत्तियों का विक्षोभ उत्पन्न करती है। दैवी प्रकोप प्रत्यक्ष में लगते तो ऐसे हैं मानो अदृश्य द्वारा मनमानी की जा रही है। किंतु अदृश्य और अप्रत्यक्ष को जो जानते हैं उनका स्पष्ट मत है कि पानी में पत्थर फेंकने और छींटे उठाने की जिम्मेदारी उन लड़कों की है जो तालाब के एक कोने पर बैठे शरारत करते रहते हैं। तालाब अकारण उछलने लगे और अपने जलचर परिवार के लिए संकट करे ऐसी बात है नहीं, प्रतीत भले ही होती हो।
इन दिनों उभरने वाले प्रकृति-प्रकोपों का सिलसिला अगले दिनों घटेगा नहीं बढ़ेगा। इस आशंका से सभी चिंतित हैं। भय अकारण है या सकारण इसका अन्वेषण करने पर कितने ही तथ्य सामने आते हैं और अशुभ संभावना की पुष्टि करते हैं। आणविक विस्फोटों के कारण बढ़ता हुआ विकिरण, विषाक्त ईंधन से उत्पन्न वायु प्रदूषण, पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे प्रायः 4000 उपग्रहों के कारण सुरक्षा परतों में विक्षोभ, ऊर्जा के बढ़ते उपयोग से गरमी का बढ़ना और उसके कारण हिम प्रदेशों का असंतुलित रीति से पिघलना, भूगर्भ से खनिज संपदा निचोड़ लेने पर उसका खोखला एवं ठंडा होते जाना आदि कितने ही कारण हैं जो धरती की भीतरी सतहों और बाहरी वातावरण में विक्षोभ उत्पन्न करते देखे जा सकते हैं। छेड़ने पर तो चींटी भी काटती है फिर नियति क्यों चूकने लगी!
अध्यात्म विज्ञान का प्रतिपादन है कि प्रकृति ही सब कुछ नहीं है। उससे भी ऊपर एक चेतन सत्ता है, जिसकी प्राणियों के साथ व्यवहार करने की विधि को ‘नियति’ कहते हैं। दिव्यदर्शी इस नियति को ही प्रधानता देते हैं और प्रकृति के संतुलन को बनाने-बिगाड़ने में इसी को उत्तरदायी मानते हैं। उनका कहना है कि प्रकृति से भौतिक छेड़खानी करने पर दैवी प्रकोप बरसना एक पक्ष तो है पर वही सब कुछ नहीं है। उससे भी बड़ी बात है—मानवी चिंतन और चरित्र से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया जो प्रकृति की नियामक सत्ता ‘नियति’ पर प्रभाव डालती है। अनाचरण से नियति की अंतरात्मा क्षुब्ध होती है। फलतः उसका प्रकृति कलेवर भी आक्रोश का, आवेश का परिचय देता है। दैवी प्रकोपों के मूल में जितना दोष प्रकृति व्यवस्था को उद्धत रूप से छेड़खानी करने का है उससे भी अधिक भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण का आश्रय लेने वाली मानवी निकृष्टता का है। नियति उसी से रुष्ट होती है और उसी के फलस्वरूप दृश्य एवं अदृश्य विपत्तियाँ समस्याएँ तथा विभीषिकाएँ उभरती-त्रास देती हैं।