पुरस्कार कहानी का सारांश लिखिए।
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Explanation:पुरस्कार कहानी का केंद्रीय भाव -
यह कहानी प्रेम और संघर्ष की कहानी है। इस कहानी की नायिका मधुलिका है। वह अरुण नामक युवक के प्रेम में आसक्त है। साथ ही जन्मभूमि के प्रति भी उसमें अपार भक्ति है। अरुण उसके राज्य पर आक्रमण करना चाहता है। पर मधुलिका कर्तव्य की बलिवेदी पर, अपने प्रेम का बलिदान कर देती है तथा आक्रमण के पूर्व कौशल नरेश को खबर देकर अपनी मातृभूमि की रक्षा करती है। वह पुरस्कार के रूप में, मृत्युदंड मांगती है।
आर्द्रा नक्षत्र; आकाश में काले काले बादलों की घूमड़, जिसमें देव-दुंदुभी का गंभीर कोश घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण पुरुष झांकने लगा था, देखने लगा महाराज की सवारी। शैलमाला के अंचल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ, भीड़ में गजराज का चामधारी शुण्ड उन्नत दिखाई पड़ा। वह हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा।
प्रभात की हेम किरणों से अनुरंजीत नन्हीं नन्हीं बूंदों का एक झोंका स्वर्ण मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष ध्वनि की। रथों, हाथियों और अश्वारोहीयों की पंक्ति थी। दर्शकों की भीड़ भी कम न थी।
गजराज बैठ गया, सीढ़ियों से महाराज उतरे। सौभाग्यवती और कुमारी सुंदरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभित मंगल कलश और फूल, कुसुम तथा खीलों से भरे खाल लिए, मधुर गान करते हुए आगे बढ़े।
महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान थी। पुरोहित वर्ग ने स्वस्त्ययन किया । स्वर्ण रंजीत हल की मूठ पकड़कर महाराज ने जूते हुए सुंदर पुष्ट बैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे। किशोरी कुमारीयों ने खीलों और फूलों की वर्षा की।
कौशल का यह उत्सव प्रसिद्ध था। एक दिन के लिए महाराज को कृषक बनना पड़ाता उस दिन इंद्र पूजन की धूम-धाम होती गोठ होती। नगर-निवासी उस पहाड़ी भूमि में आनंद मनाते। प्रतिवर्ष कृषि का यह महोत्सव उत्साह से संपन्न होता, दूसरे राज्यों से भी युवक राजकुमार इस उत्सव में बड़े चाव से आकर योग देते।
मगध का एक राज कुमार अरुण अपने रथ पर बैठा बड़े कुतूहल से यह दृश्य देख रहा था। बीजों का एक थाल लिए कुमारी मधुलिका महाराज के साथ थी। बीज होते हुए महाराज जब हाथ बढ़ाते, तब मधुलिका उनके सामने थाल कर देती। यह खेत मधुलिका का था, जो इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था; इसलिए बीज देने का सम्मान मधुलिका को ही मिला।
वह कुमारी थी, सुंदरी थी। कौशेय वसन उसके शरीर पर इधर-उधर लहराता हुआ स्वयं शोभित हो रहा था। वह कभी उसे संभालती और कभी अपनी रूखी अलकों को। कृषक बालिका के शुभ्र भाल पर श्रमकणों की भी कमी न थी, वे सब बरौयों में गुँथे जा रहे थे किंतु महाराज को बीज देने में उसने शिथिलता नहीं कि। सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे-विस्मय से, कुतूहल से। और अरुण देख रहा था कृषक कुमारी मधुलिका को। आह !कितना भोला सौंदर्य ! कितनी सरल चितवन !
उत्सव का प्रधान कृत्य समाप्त हो गया। महाराज ने मधुलिका के खेत को पुरस्कृत किया, थाल में कुछ स्वर्ण मुद्राएं। वह राजकीय अनुग्रह था। मधुलिका ने थाली सिर से लगा ली ; किंतु साथ ही उन स्वर्ण मुद्राओं को महाराज पर न्योछावर कर के बिखेर दिया। मधुलिका की उस समय की ऊर्जस्वित मूर्ति लोग आश्चर्य से देखने लगे !
महाराज की भृकुटी भी जरा चढ़ी थी कि मधुलिका ने सविनय कहा - "देव ! यह मेरे पितृ पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है; इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। " महाराज के बोलने के पहले ही वृद्ध मंत्री ने तीखे स्वर से कहा- "अबोध ! क्या बक रही है ?
राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार ! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है; फिर कोशल का तो यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है। तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारीणी हुई इस धन से अपने को सुखी बना। "
"राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है मंत्रिवर ! महाराज को भूमि समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है ; किंतु मूल्य स्वीकार करना असंभव है" - मधुलिका उत्तेजित हो उठती है उठी थी।
महाराज के संकेत करने पर मंत्री ने कहा- "देव ! वाराणसी युद्ध के अंयतम वीर सिंहमित्र की एकमात्र कन्या है। " महाराज चौक उठे- "सिंहमित्र की कन्या ! जिसने मगध के सामने कोशल की लाज रख ली थी, उसी वीर की मधुलिका कन्या है ?"
"हाँ, देव !" मंत्री ने सविनय कहा।
"इस उत्सव के परंपरागत नियम क्या हैं , मंत्रीवर ? " - महाराज ने पूछा।
"देव, नियम तो बहुत साधारण हैं। किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर नियमानुसार पुरस्कार स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है। वह भी अत्यंत अनुग्रह पूर्वक अर्थात भू संपत्ति का चौगुना मूल्य उसे मिलता है। उस खेती को वही व्यक्ति वर्ष भर देखता है। वह राजा का खेत कहा जाता है। "
महाराज को विचार संघर्ष से विश्राम की अत्यंत आवश्यकता थी। महाराज चुप रहे। जयघोष के साथ सभा विसर्जित हुई। सब अपने-अपने शिविरों में चले गए, किंतु मधुलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा। वह अपने खेत की सीमा पर विशाल मधुक-वृक्ष के चिकने हरे पत्तों की छाया में अनमनी चुपचाप बैठी रही।
रात्रि का उत्सव अब विश्राम ले रहा था। राजकुमार अरुण उसमें सम्मिलित नहीं हुआ। वह अपने विश्राम भवन में जागरण कर रहा था आंखों में नींद न थी। प्राची में जैसे गुलाली खिल रही थी, वही रंग उसकी आंखों में था। सामने देखा तो मुँडेर पर कपोती एक पैर पर खड़ी पंख फैलाए अंगड़ाई ले रही थी। अरुण उठ खड़ा हुआ। द्वार पर सुसज्जित अश्व था। वहां देखते-देखते नगरतोरण पर जा पहुंचा। रक्षकगण ऊँघ रहे थे, अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे।
युवक कुमार तीर से निकल गया। सिंधुदेश का तुरंग प्रभात के पवन से पुलकित हो रहा था। घूमता-घूमता अरुण उसी मधूक वृक्ष के नीचे पहुंचा, जहां मधुलिका अपने हाथ पर सिर भरे हुए निद्रा का सुख ले रही थी।