पुस्तक की आत्मकथा इस विषय पर अपने विचार लिखे.
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एक पुस्तक अपने जीवन की व्याख्या करते हुए कहती है कि जिस रूप में आज आप मुझे देखते है पहले मै ऐसी दिखाई नही देती थी। यह रूप तो उसे कई कठिनाइयों और पीड़ा झेलने के बाद मिला है। वह कहती है की उसका पहला रूप पेड़ो की पत्तियाँ थी। जब बड़े बड़े महाज्ञानी ऋषि मुनि उस पर लिखा करते थे।
लेकिन समय बदला और सबकुछ बदलने लगा और परिवर्तन तो संसार का नियम है इसलिए धीरे – धीरे मुझे बड़ी – बड़ी शिलाओं का रूप दे दिया गया वहां पर लिखा जाने लगा। लेकिन जब लोगो को आभास हुआ की शीला (पत्थर) पर लिखा ज्ञान सभी जगह नहीं फैलाया जा सकता तो लोगो ने मुझे नया कपड़े का रूप दिया। यह रूप मेरा सभी राजा- महाराजाओं को भाया।
कपड़े पर लिखा ज्ञान चारों दिशाओं में फैलने लगा, राजा – महाराजा अपना संदेश मेरे माध्यम से एक दुसरे को पहुँचाने लगे। चारों दिशाओं और मेरी ख्याति फैलने लगी।
लेकिन फिर एक नया दौर आया और फिर मेरा रूप बदला इस बार मेरा रूप बहुत ही सुंदर था। मुझे कागज का रूप दिया गया, जिसके बाद मैं अमर हो गयी। मुझे कागज का रूप देने के लिए घास-फूस, बांस के टुकड़े, पुराने कपड़े के चीथड़े को कूट कर पानी में गलाया जाता है। फिर मुझे बड़ी-बड़ी मशीनों में निचोड़ दिया जाता है।
फटी पुस्तक कहती है की वर्तमान मैं भी उसे खूब प्यार और सम्मान दिया गया। उसे बड़े – बड़े पुस्तकालयों में सम्भाल के रखा है। उसे विद्यालयों में बच्चो को शिक्षा देने के लिए उपयोग किया जाता है। बड़े – बड़े वैज्ञानिक भी अपने आविष्कार करने के लिए उसका उपयोग करते है उसके ज्ञान का लाभ उठाते है। उसे अब माँ लक्ष्मी का रूप भी पूजा जाने लगा क्यों की सभी लोग अब नोट की छपाई भी मेरे कागज पर ही करते है।
पुस्तक अपनी आत्मकथा इस कविता के माध्यम से बताना चाहती है –
फटी पुस्तक की कविता (Fati Pustak ki Kavita)
मै किसी के जन्म का प्रमाण हूँ,
तो कहीं मृत्यु का दस्तावेज हूँ।
मै न्यायलय में कहीं सत्य का प्रमाण हूँ,
तो कहीं झूठ की दास्तान हूँ।
मैं किसी के रोजगार का साधन हूं,
तो किसी के बेरोजगारी का प्रमाण हूं
मैं कहीं किसी के मृत्यु का फरमान हूं,
तो वही सत्य की जीत का प्रमाण हूं।
मैं कहीं लेखकों के ज्ञान का प्रकाश हूं,
मैं भी जीवन का एक आधार हूं।
मुझे कहीं पैसों में तोला जाता है,
तो कभी गरीबों में बांटा जाता हूं।
मुझ में लिखा है पूरा इतिहास,
मैंने राजा को रंक बनते भी देखा है।
मैं किसी के लिए पवन की धारा हूं,
तो किसी बूढ़े के लिए सर्दियों में गर्मी का सहारा हूं।
मुझ पर छपती है ज्ञान के बाते,
लेकिन जब छपती कोई बलात्कार,
हिंसा की बात तो बहुत दुःख होता है।
मुझे कहीं ईश्वर के रूप मैं पूजी जाती हूं,
तो कहीं पैरों में कुचल दी जाता हूं।
मुझ में छुपा है ज्ञान का भंडार,
जो एक बार पढ़ लें वह कभी न दुःख पाए।
धीरे-धीरे इस कार्य में कठिनाई उत्पन्न होने लगी । ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए उसे लिपिबद्ध करना आवश्यक हो गया । तब ऋषियों ने भोजपत्र पर लिखना आरम्भ किया । यह कागज का प्रथम स्वरूप था ।
भोजपत्र आज भी देखने को मिलते हैं । हमारी अति प्राचीन साहित्य भोजपत्रों और ताड़तत्रों पर ही लिखा मिलता है ।
मुझे कागज का रूप देने के लिए घास-फूस, बांस के टुकड़े, पुराने कपड़े के चीथड़े को कूट पीस कर गलाया जाता है उसकी लुगदी तैयार करके मुझे मशीनों ने नीचे दबाया जाता है, तब मैं कागज के रूप में आपके सामने आती हूँ ।
मेरा स्वरूप तैयार हो जाने पर मुझे लेखक के पास लिखने के लिए भेजा जाता है । वहाँ मैं प्रकाशक के पास और फिर प्रेस में जाती हूँ । प्रेस में मुश् छापेखाने की मशीनों में भेजा जाता है । छापेखाने से निकलकर में जिल्द बनाने वाले के हाथों में जाती हूँ ।
वहाँ मुझे काटकर, सुइयों से छेद करके मुझे सिला जाता है । तब मेर पूर्ण स्वरूप बनता है । उसके बाद प्रकाशक मुझे उठाकर अपनी दुकान पर ल जाता है और छोटे बड़े पुस्तक विक्रेताओं के हाथों में बेंच दिया जाता है ।
मैं केवल एक ही विषय के नहीं लिखी जाती हूँ अपितु मेरा क्षेत्र विस्तृत है । वर्तमान युग में तो मेरी बहुत ही मांग है । मुझे नाटक, कहानी, भूगोल, इतिहास, गणित, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, साइंस आदि के रूप में देखा जा सकता है ।
बड़े-बड़े पुस्तकालयों में मुझे सम्भाल कर रखा जाता है । यदि मुझे कोई फाड़ने की चेष्टा करे तो उसे दण्ड भी दिया जाता है । और पुस्तकालय से निकाल दिया जाता है । दुबारा वहां बैठकर पढ़ने की इजाजत नहीं दी जाती ।
मुझमें विद्या की देवी मरस्वती वास करती है। अध्ययन में रुचि रखने वालों की मैं मित्र बन जाती हूँ । वह मुझे बार-बार पढ़कर अपना मनोरंजन करते हैं । मैं भी उनमें विवेक जागृत करती हूँ । उनकी बुद्धि से अज्ञान रूपी अन्धकार को निकाल बाहर करती हू.