पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।
जनम-जनम की पूँजी पायी, जग में सभी खोवायो।
खरच न खूटे, चोर न लूट, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाँव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।
मीरा के
प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस गायो।।
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पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।
जनम-जनम की पूँजी पायी, जग में सभी खोवायो।
खरच न खूटे, चोर न लूट, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाँव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस गायो।।
मीरा बाई की कविता पंक्तियाँ है।इन पंक्तियों का अर्थ है :-
जैसे एक कीमती मोती समुन्दर की गहराइयों में पड़ा होता है। और उसे अथक प्रयत्नों एवं परिश्रम के बाद ही पाया जा सकता है। वैसे ही ‘राम’ यानी ईश्वर रूपी मोती हर किसी को सुलभ उपलब्ध नहीं है। मीरा कहती हैं कि सदगुरुआपकी कृपा से मुझे राम रूपी रतन मिला है। यह ऐसा धन है जो कि ना तो खर्च करने से घटता है और नही इसे चोर चुरा सकते हैं। मीरा को ब्रह्म का बोध कराने वाले उनके सदगुरु किसी नाव के केवट की तरह हैं जो कि उनको भवसागर से तराने में मदद कर रहे हैं।