panate bagena saram hoga in Hindi summary
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'अरे बेचन! न जाने कौन आया था - उर्द जी, उर्द जी पुकार रहा था!'
ये शब्द मेरी दिवंगता जननी, काशी में जन्मी जयकाली के हैं जिन्हें मैं 'आई' पुकारा करता था। यू.पी. में माता या माई को आई शायद ही कोई कहता हो। महाराष्ट्र में तो घर-घर में माता को आई ही संबोधित किया जाता है। कैसे मैंने माई को आई माना, आज भी विवरण देना मुमकिन नहीं। लेकिन बंबई जाने पर जब लक्ष-लक्ष महाराष्ट्रियों के मुँह से 'आई' सुना तो मेरे आंतरिक हर्ष की सीमा न रही। जो हो। मैं यह कहना चाहता था कि मेरी जननी इस कदर अनपढ़ थीं कि जो सार्थकता उन्हें 'उर्द' जी में मिलती थी वह 'उग्र' जी में नहीं। उनसे जब मैंने अपने पैदा होने के समय के बारे में पूछा तो उन्होंने बतलाया कि पौष शुक्ल अष्टमी को रात में जब तुम्हारे पिता बिहारीसाहु के मंदिर से पूजा करके लौटे थे तब तुम पैदा हो चुके थे। दूसरा पता उन्होंने यह दिया कि तुम्हारी बारही के दिन मातादयाल का जन्म हुआ था। यह मातादयाल मेरे भतीजे थे। पिता दिवंगत बैजनाथ पाँड़े चुनार के खासे धनिक वणिक बिहारीसाहु के राम-मंदिर में वैतनिक पुजारी थे। वेतन था रुपये पाँच माहवार। साथ ही चुनार में जजमानी-वृत्ति भी पर्याप्त थी। उन्हीं में एक जजमान बहुत बड़ा जमींदार था जिसके मरने के बाद उसके दोनों पुत्रों में संपत्ति के लिए घोर अदालती संघर्ष हुआ। उसी मुकदमे में जमींदार के बड़े लड़के ने कुल-पुरोहित की हैसियत से मेरे पिता का नाम भी गवाहों में लिखा दिया था, गोकि उन्होंने भाई के द्वंद्व में पड़ने से बारहा इनकार किया था। नए जमींदार ने मेरे पिता को प्रलोभन भी 'प्रापर' दिए। लेकिन वह भद्रभाव से अस्वीकार ही करते रहे कि समन आ धमका। लाचार अदालत में हाजिर तो वह हुए, पर पुकार होते ही उन्होंने कोर्ट से साफ-साफ कह दिया कि उन्हें माफ करे कोर्ट, उनकी गवाही उस पार्टी के विरुद्ध पड़ सकती है जिसने गवाह बनाकर उन्हें अदालत के सामने पेश कराया है। तब तो आप की गवाही जरूर होनी चाहिए, अदालत ने आग्रह किया - और गवाही हुई। कहते हैं उसी गवाही पर कोर्ट का सारा फैसला आधारित रहा। बड़ा भाई हार गया। वही जिसने मेरे पिता को गवाह बनाया था। जीत छोटे भाई की हुई। इस सब में पिता के पल्ले सिवाय सत्य के कुछ भी नहीं पड़ा। घर की बुढ़िया इसके लिए बैजनाथ पाँड़े को बराबर गर्व से कोसती रही, कि उसने जरा भी टेड़ी-मेड़ी बात न कर खरे सच के पीछे एक अच्छी जमींदारी हाथ से खो दी। चुनार में बैजनाथ पाँड़े की जजमानी थोड़ी ही थी। निकटस्थ जलालपुर माफी गाँव में जमीन भी चंद बीघे थी जो - और कुछ नहीं तो - साल का खाने-भर अनाज और पशुओं के लिए भुस पर्याप्त दे सकती थी। बस इतने में ही बैजनाथ पाँड़े अपने कुनबे का खर्च अपने दायरे में मजे में चला लेते थे - यहाँ तक मजे में कि सारी जिंदगी बिहारीसाहु के मंदिर में वेतन भोगी पुजारी रहे, पर वेतन लिया कभी नहीं - और मर भी गए। बैजनाथ पाँड़े संस्कृत के साधारण जानकार, जजमानी विद्या-निपुण, साथ ही गीता के परम-भक्त, शैव परिवार में पैदा होकर भी वैष्णव प्रभाव, भाव-संपन्न थे। कहते हैं बैजनाथ पाँड़े सम्यक चरित्रवान, सुदर्शन और सत्यवादी थे। कहते हैं वह चालीस वर्ष ही की उम्र में बैकुंठ-बिहारी के प्यारे हो गए थे। कहते हैं इतनी ही उम्र में वह बारह बच्चों के जनक बन चुके थे। मेरे कहने का मतलब यह कि बैजनाथ पाँड़े अच्छे तो थे - बहुत - लेकिन अन-बैलेन्स्ड भी कम नहीं थे। सो उन्हें क्षय-रोग हुआ, जिससे असमय में ही उनके जीवन-स्रोत का क्षय हो गया। कहते हैं क्षय में बकरे की सन्निकटता, बकरी का दूध, उसी के मांस का स्वरस बहुत लाभदायक होते हैं। हमारा परिवार शाक्त, हम छिपकर मांसादि ग्रहण करनेवाले, फिर भी बैजनाथ पाँड़े ने प्राणों के लिए अवैष्णवी उपाय अपनाना अस्वीकृत कर दिया। अपने पिता की एक झलक-मात्र मेरी आँखों में है। मंदिर से आकर ब्राह्मण-वेश में किसी ने मेरे मुँह में एक आचमनी गंगाजल डाल दिया, जिसमें बताशे घुले हुए थे। मैं माँ की गोद में था। उसने बतलाया, चरणामृत है बेटे! कितना मीठा! मैंने अपने पिता को बुरी तरह बीमार देखा, घर में चारों ओर निराशा! ...पिता का मरना ...आई का पछाड़ खा-खाकर रोना मुझे मजे में याद है। यद्यपि तब मैं बहुत छोटा, रोगीला, बेदम-जैसा बालक था। जब मेरे पिता का देहांत हुआ मैं महज दो साल और छह महीनों का था। यानी मैंने जरा ही आँखें खोलकर दुनिया को देखा तो मेरा कोई सरपरस्त नहीं! प्रायः जन्मजात अनाथ - ऐसा - जिस पर किसी का भी वरदहस्त नहीं रहा। पिता भाई-बहन