पराधीन सपनहूँ सूच
नाहीं 150 words
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महाकवि तुलसीदास ने कहा है-
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं, सोच विचार देख मनमाही।
तुलसीदास जी की यह काव्य पंक्ति गहन अर्थ रखती है। इसका संदेश है कि जो व्यक्ति स्वाधीन नहीं है, वह स्वजनों में भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। पराधीनता वास्तव में अत्यंत कष्टदायक होती है।
हितोपदेश में कहा गया है-‘पराधीन को यदि जीवित कहें तो मृत कौन है?” अर्थात् पराधीन व्यक्ति मृत के तुल्य है।
मानव जन्म से लेकर मृत्यु तक स्वतंत्र रहना चाहता है। वह किसी के अधीन या वश में रहने को तैयार नहीं होता। यदि कभी उसे पराधीन होना भी पड़े, तो वह अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी स्वाधीनता प्राप्त करना चाहता है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा था, ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी स्वाधीनता के महत्व तथा पराधीनता के कष्ट को जानते हैं। सोने के पिंजरे में पड़ा हुआ पक्षी भी सुख तथा आनंद की अनुभूति नहीं कर सकता। सोने के पिंजरे में रहकर उसे षट्रस व्यंजन अच्छे नहीं लगते। वह तो पेड़ की डालियों पर बैठकर फल-फूल तथा दाना-तिनका खाने में आनंदित होता है।
प्रकृति का कण-कण स्वाधीन है। प्रकृति भी अपनी स्वाधीनता में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं चाहती। जब-जब मनुष्य ने अहंकार स्वरूप प्रकृति के स्वाधीन तथा उन्मुक्त स्वरूप के साथ छेड़खानी करने की चेष्टा की है, प्रकृति ने उसे सबक सिखाया। मनुष्य ने प्राकृतिक संतुलन तथा पर्यावरण को छेड़ने की कोशिश की तो परिणाम हुआ-प्रदूषण, भूस्खलन, बाढ़ें, भू-क्षरण, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि। दो फूलों की तुलना कीजिए-एक उपवन में उन्मुक्त हँसी बिखेर रहा है तथा दूसरा फूलदान में लगा है। फूलदान में लगा पुष्प अपनी किस्मत पर रोता है, जबकि उपवन में लगा पुष्प आनंदित होता है। सर्कस में तरह-तरह के खेल दिखाने वाले पशु-पक्षी यदि बोल पाते तो रो-रोकर अपनी पराधीनता तथा कष्टों की कहानी सुनाते। वे बेचारे मूक प्राणी अपनी व्यथा को शब्दों द्वारा अभिव्यक्त नदीं कर सकते।
पराधीन व्यक्ति के बौद्धिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है। उसकी आत्मा तथा स्वाभिमान को पग-पग पर ठेस पहुँचती है। उसमें हीन भावना आ जाती है तथा उसका शौर्य, साहस, दृढ़ता तथा गर्व शनै:-शनै: शांत होने लगता है। पराधीन व्यक्ति अकर्मण्य हो जाता है, क्योंकि उसमें आत्मविश्वास खत्म हो जाता है। पराधीन व्यक्ति भौतिक सुखों को ही सब कुछ मान बैठता है और कई बार तो वह इनसे भी वंचित रहता है। उसके सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो जाती है। उसकी सुजनात्मक क्षमता भी धीरे-धीरे लुप्त होती चली जाती है।
भारत कभी सोने की चिड़िया कहलाता था। यह मानवता का महान सागर, गौरवशील देश लगभग हर क्षेत्र में उन्नत था, परंतु सैकड़ों वर्षों की पराधीनता ने उसे कहाँ से कहाँ से पहुँचा दिया। वह दुर्बल, निर्धन तथा पिछड़ा हुआ देश बनकर रह गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अनेक वीरों ने अपना बलिदान दिया। परंतु स्वाधीन होने के इतने वर्षों बाद भी मानसिक रूप से हम स्वाधीन नहीं हो पाए। विदेशी संस्कृति, विदेशी सभ्यता और विदेशी भाषा को अपनाकर आज भी हम अपनी मानसिक पराधीनता का परिचय दे रहे हैं। ।
लाला लाजपतराय पराधीनता के युग में विदेश यात्रा पर गए। हर जगह उनका स्वागत हुआ। लोगों ने उनकी बात ध्यान से सुनी। अपने देश को स्वाधीन करने के लिए उन्होंने विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित किया। जब वे भारत आए तो उन्होंने अपने अनुभव सुनाते हुए कहा कि वे अनेक देशों मे घूमे, पर हर स्थान पर भारत की पराधीनता का कलंक उनके माथे पर लगा रहा ।
हमारा कर्तव्य है कि हम कभी भी राजनैतिक, सांस्कृतिक या किसी अन्य प्रकार की पराधीनता स्वीकार न करें। हर राष्ट्र के लिए स्वाधीनता का बहुत अधिक महत्व है। कोई भी राष्ट्र तभी उन्नति कर सकता है, यदि वह स्वाधीन हो। जो जाति अथवा देश स्वाधीनता की मूल्य नहीं पहचानता तथा स्वाधीनता को बनाए रखने के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह एक-न-एक दिन पराधीन अवश्य हो जाता है तथा उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। स्वाधीनता के लिए कुबानी देनी पड़ती है। कवि दिनकर ने कहा है
‘स्वातंत्र्य जाति की लगन, व्यक्ति की धुन है,
बाहरी वस्तु यह नहीं, भीतरी गुण है।
नत हुए बिना जो अशनि घात सहती है,
स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है।’