paragraph on gantantr in hindi
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गणतंत्र सरकार का एक रूप है जिसमें देश को एक "सार्वजनिक मामला" माना जाता है, न कि शासकों की निजी संस्था या सम्पत्ति। एक गणराज्य के भीतर सत्ता के प्राथमिक पद विरासत में नहीं मिलते हैं। यह सरकार का एक रूप है जिसके अंतर्गत राज्य का प्रमुख राजा नहीं होता।
गणराज्य की परिभाषा का विशेष रूप से सन्दर्भ सरकार के एक ऐसे रूप से है जिसमें व्यक्ति नागरिक निकाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और किसी संविधान के तहत विधि के नियम के अनुसार शक्ति का प्रयोग करते हैं, और जिसमें निर्वाचित राज्य के प्रमुख के साथ शक्तियों का पृथक्करण शामिल होता हैं, व जिस राज्य का सन्दर्भ संवैधानिक गणराज्य या प्रतिनिधि लोकतंत्र से हैं।
2017 तक, दुनिया के 206 सम्प्रभु राज्यों में से 159 अपने आधिकारिक नाम के हिस्से में "रिपब्लिक" शब्द का उपयोग करते हैं - निर्वाचित सरकारों के अर्थ से ये सभी गणराज्य नहीं हैं, ना ही निर्वाचित सरकार वाले सभी राष्ट्रों के नामों में "गणराज्य" शब्द का उपयोग किया गया हैं। भले राज्यप्रमुख अक्सर यह दावा करते हैं कि वे "शासितों की सहमति" से ही शासन करते हैं, नागरिकों को अपने स्वयं के नेताओं को चुनने की वास्तविक क्षमता को उपलब्ध कराने के असली उद्देश्य के बदले कुछ देशों में चुनाव "शो" के उद्देश्य से अधिक पाया गया है।
Explanation:
साहित्य से ज्ञात होता है कि पाणिनि और बुद्ध के काल में अनेक गणराज्य थे। तिरहुत से लेकर कपिलवस्तु तक गणराज्यों का एक छोटा सा गुच्छा गंगा से तराई तक फैला हुआ था। बुद्ध शाक्यगण में उत्पन्न हुए थे। लिच्छवियों का गणराज्य इनमें सबसे शक्तिशाली था, उसकी राजधानी वैशाली थी। किंतु भारतवर्ष में गणराज्यों का सबसे अधिक विस्तार वाहीक (आधुनिक पंजाब) प्रदेश में हुआ था।
भारतवर्ष में लगभग एक सहस्र वर्षों (600 सदी ई. पू. से 4 थी सदी ई.) तक गणराज्यों के उतार चढ़ाव का इतिहास मिलता है। उनकी अंतिम झलक गुप्त साम्राज्य के उदय काल तक दिखाई पड़ती है। समुद्रगुप्त द्वारा धरणिबंध के उद्देश्य से किए हुए सैनिक अभियान से गणराज्यों का विलय हो गया। अर्वाचीन पुरातत्व के उत्खनन में गणराज्यों के कुछ लेख, सिक्के और मिट्टी की मुहरें प्राप्त हुई हैं। विशेषत: विजयशाली यौधेय गणराज्य के संबंध की कुछ प्रमाणिक सामग्री मिली है।
महाभारत युग में अंधकवृष्णियों का संघ गणतंत्रात्मक था। साम्राज्यों की प्रतिद्वंद्विता में भाग लेने में समर्थ उसके प्रधान कृष्ण महाभारत की राजनीति को मोड़ देने लगे। पाणिनि (ईसा पूर्व पाँचवीं-सातवीं सदी) के समय सारा वाहीक देश (पंजाब और सिंध) गणराज्यों से भरा था। महावीर और बुद्ध ने न केवल ज्ञात्रिकों और शाक्यों को अमर कर दिया वरन् भारतीय इतिहास की काया पलट दी।
प्राचीन भारत की भाँति ग्रीस की भी गणपरंपरा अत्यंत प्राचीन थीं। दोरियाई कबीलों ने ईजियन सागर के तट पर 12 वीं सदी ई. पू. में ही अपनी स्थिति बना ली। धीरे धीरे सारे ग्रीस में गणराज्यवादीं नगर खड़े हो गए। एथेंस, स्पार्ता, कोरिंथ आदि अनेक नगरराज्य दोरिया ग्रीक आवासों की कतार में खड़े हो गए। उन्होंने अपनी परंपराओं, संविधानों और आदर्शों का निर्माण किया, जनसत्तात्मक शासन के अनेक स्वरूप सामने आए। प्राप्तियों के उपलक्ष्यस्वरूप कीर्तिस्तंभ खड़े किए गए और ऐश्वर्यपूर्ण सभ्यताओं का निर्माण शुरू हो गया। परंतु उनकी गणव्यवस्थाओं में ही उनकी अवनति के बीज भी छिपे रहे। उनके ऐश्वर्य ने उनकी सभ्यता को भोगवादी बना दिया, स्पार्ता और एथेंस की लाग डाट और पारस्परिक संघर्ष प्रारंभ हो गए और वे आदर्श राज्य--रिपब्लिक--स्वयं साम्राज्यवादी होने लगे। उनमें तथाकथित स्वतंत्रता ही बच रही, राजनीतिक अधिकार अत्यंत सीमित लोगों के हाथों रहा, बहुल जनता को राजनीतिक अधिकार तो दूर, नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं थे तथा सेवकों और गुलामों की व्यवस्था उन स्वतंत्र नगरराज्यों पर व्यंग्य सिद्ध होने लगी। स्वार्थ और आपसी फूट बढ़ने लगी। वे आपस में तो लड़े ही, ईरान और मकदूनियाँ के साम्राज्य भी उन पर टूट पड़े। सिकंदर के भारतीय गणराज्यों की कमर तोड़ने के पूर्व उसे पिता फिलिप ने ग्रीक गणराज्यों को समाप्त कर दिया था। साम्राज्यलिप्सा ने दोनों ही देशों के नगरराज्यों को डकार दिया।
विश्व इतिहास के प्राचीन युग के गणों की तरह आज के गणराज्य अब न तो क्षेत्र में अत्यंत छोटे हैं और न आपस में फूट और द्वेषभावना से ग्रस्त। उनमें न तो प्राचीन ग्रीस का दासवाद है और न प्राचीन और मध्यकालीन भारत और यूरोप के गणराज्यों का सीमित मतदान। उनमें अब समस्त जनता का प्राधान्य हो गया है और उसके भाग्य की वही विधायिका है। सैनिक अधिनायकवादी भी विवश होकर जनवाद का दम भरते और कभी कभी उसके लिये कार्य भी करते हैं। गणराज्य की भावना अमर है और उसका जनवाद भी सर्वदा अमर रहेगा।