परहित सरिस धर्म नहिं भाई’ इस सुवचन पर आधारित कहानी लेखन कीजिए।
Answers
Answer:
प्रस्तावना–
मानव एक सामाजिक प्राणी है; अत: समाज में रहकर उसे अन्य प्राणियों के प्रति कुछ दायित्वों का भी निर्वाह करना पड़ता है। इसमें परहित अथवा परोपकार की भावना पर आधारित दायित्व सर्वोपरि है। तुलसीदासजी के अनुसार जिनके हृदय में परहित का भाव विद्यमान है, वे संसार में सबकुछ कर सकते हैं। उनके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है
परहित बस जिनके मन माहीं। तिन्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
सभी मनुष्य समान हैं–
भगवान् द्वारा बनाए गए समस्त मानव समान हैं; अत: इनमें परस्पर प्रेमभाव होना ही चाहिए। किसी व्यक्ति पर संकट आने पर दूसरों को उसकी सहायता अवश्य करनी चाहिए। दूसरों को कष्ट से कराहते हुए देखकर भी भोग–विलास में लिप्त रहना उचित नहीं है। अकेले ही भाँति–भाँति के भोजन करना और आनन्दमय रहना तो पशुओं की प्रवृत्ति है। मनुष्य तो वही है, जो मानव–मात्र हेतु अपना सबकुछ न्योछावर करने के लिए तैयार रहे
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
– मैथिलीशरण गुप्त
प्रकृति और परोपकार–
प्राकृतिक क्षेत्र में सर्वत्र परोपकार–भावना के दर्शन होते हैं। सूर्य सबके लिए प्रकाश विकीर्ण करता है। चन्द्रमा की शीतल किरणें सभी का ताप हरती हैं। मेघ सबके लिए जल की वर्षा करते हैं। वायु सभी के लिए जीवनदायिनी है। फूल सभी के लिए अपनी सुगन्ध लुटाते हैं। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और नदियाँ अपने जल को संचित करके नहीं रखतीं। इसी प्रकार सत्पुरुष भी दूसरों के हित के लिए ही अपना शरीर धारण करते हैं
वृच्छ कबहुँ नहीं फल भखें, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर॥
–रहीम
परोपकार के अनेक उदाहरण–
इतिहास एवं पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनको पढ़ने से यह विदित होता है कि परोपकार के लिए महान् व्यक्तियों ने अपने शरीर तक का त्याग कर दिया। पुराण में एक कथा आती है कि एक बार वृत्रासुर नामक महाप्रतापी राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। चारों ओर त्राहि–त्राहि मच गई थी। उसका वध दधीचि ऋषि की अस्थियों से निर्मित वज्र से ही हो सकता था।
उसके अत्याचारों से दु:खी होकर देवराज इन्द्र दधीचि की सेवा में उपस्थित हुए और उनसे उनकी अस्थियों के लिए याचना की। महर्षि दधीचि ने प्राणायाम के द्वारा अपना शरीर त्याग दिया और इन्द्र ने उनकी अस्थियों से बनाए गए वज्र से वृत्रासुर का वध किया। इसी प्रकार महाराज शिबि ने एक कबूतर के प्राण बचाने के लिए अपने शरीर का मांस भी दे दिया। सचमुच वे महान् पुरुष धन्य हैं; जिन्होंने परोपकार के लिए अपने शरीर एवं प्राणों की भी चिन्ता नहीं की।