parvat pradesh mein pavas mind map ..
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1). पावस ऋतु थी ,पर्वत प्रवेश ,
पल पल परिवर्तित प्रकृति -वेश।
पावस ऋतु - वर्षा ऋतु
पावस ऋतु - वर्षा ऋतुपरिवर्तित - बदलना
पावस ऋतु - वर्षा ऋतुपरिवर्तित - बदलनाप्रकृति -वेश -- प्रकृति का रूप
प्रसंग -:प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक 'स्पर्श - भाग 2' से लिया गया है। इसके कवि 'सुमित्रानंदन पंत जी 'हैं। इसमें कवि ने वर्षा ऋतु का सुंदर वर्णन किया है।
व्याख्या -: कवि कहता है कि पर्वतीय क्षेत्र में वर्षा ऋतु का प्रवेश हो गया है। जिसकी वजह से प्रकृति के रूप में बार बार बदलाव आ रहा है अर्थात कभी बारिश होती है तो कभी धूप निकल आती है।
2).अपने सहस्र दृग- सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार बार ,
नीचे जल ने निज महाकार ,
नीचे जल ने निज महाकार , -जिसके चरणों में पला ताल
नीचे जल ने निज महाकार , -जिसके चरणों में पला ताल दर्पण सा फैला है विशाल !
मेखलाकार - करघनी के आकर की पहाड़ की ढाल
सहस्र - हज़ार
दृग -सुमन - पुष्प रूपी आँखे
अवलोक - देखना
महाकार - विशाल आकार
ताल - तालाब
दर्पण - आईना
प्रसंग -: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक 'स्पर्श - भाग 2' से लिया गया है। इसके कवि 'सुमित्रानंदन पंत जी 'हैं। इसमें कवि ने पर्वतों का सजीव चित्रण किया है।
व्याख्या -: इस पद्यांश में कवि ने पहाड़ों के आकार की तुलना करघनी अर्थात कमर में बांधने वाले आभूषण से की है । कवि कहता है कि करघनी के आकर वाले पहाड़ अपनी हजार पुष्प रूपी आंखें फाड़ कर नीचे जल में अपने विशाल आकार को देख रहे हैं।ऐसा लग रहा है कि पहाड़ ने जिस तालाब को अपने चरणों में पाला है वह तालाब पहाड़ के लिए विशाल आईने का काम कर रहा है।
3).गिरि का गौरव गाकर झर- झर
मद में नस -नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों- से सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर !
गिरि - पहाड़
गिरि - पहाड़मद - मस्ती
गिरि - पहाड़मद - मस्तीझग - फेन
गिरि - पहाड़मद - मस्तीझग - फेनउर – हृदय
गिरि - पहाड़मद - मस्तीझग - फेनउर – हृदयउच्चांकाक्षा - ऊँच्चा उठने की कामना
गिरि - पहाड़मद - मस्तीझग - फेनउर – हृदयउच्चांकाक्षा - ऊँच्चा उठने की कामनातरुवर -पेड़
गिरि - पहाड़मद - मस्तीझग - फेनउर – हृदयउच्चांकाक्षा - ऊँच्चा उठने की कामनातरुवर -पेड़नीरव नभ शांत - शांत आकाश
गिरि - पहाड़मद - मस्तीझग - फेनउर – हृदयउच्चांकाक्षा - ऊँच्चा उठने की कामनातरुवर -पेड़नीरव नभ शांत - शांत आकाशअनिमेष - एक टक
प्रसंग -: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक 'स्पर्श - भाग 2' से लिया गया है। इसके कवि 'सुमित्रानंदन पंत जी 'हैं। इसमें कवि ने झरनों की सुंदरता का वर्णन किया है।
व्याख्या -: इस पद्यांश में कवि कहता है कि मोतियों की लड़ियों के समान सुंदर झरने झर झर की आवाज करते हुए बह रहे हैं ,ऐसा लग रहा है की वे पहाड़ों का गुणगान कर रहे हों। उनकी करतल ध्वनि नस नस में उत्साह अथवा प्रसन्नता भर देती है।
पहाड़ों के हृदय से उठ-उठ कर अनेकों पेड़ ऊँच्चा उठने की इच्छा लिए एक टक दृष्टि से स्थिर हो कर शांत आकाश को इस तरह देख रहे हैं, मनो वो किसी चिंता में डूबे हुए हों। अर्थात वे हमें निरन्तर ऊँच्चा उठने की प्रेरणा दे रहे हैं।
4) उड़ गया ,अचानक लो ,भूधर
फड़का अपार पारद * के पर !
रव -शेष रह गए हैं निर्झर !
है टूट पड़ा भू पर अम्बर !
प्रसंग -: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक 'स्पर्श - भाग 2' से लिया गया है। इसके कवि 'सुमित्रानंदन पंत जी 'हैं। इसमें कवि ने बारिश के कारण प्रकृति का बिल्कुल बदला हुआ रूप दर्शाया है।
व्याख्या -: इस पद्यांश में कवि कहता है कि तेज बारिश के बाद मौसम ऐसा हो गया है कि घनी धुंध के कारण लग रहा है मानो पेड़ कही उड़ गए हों अर्थात गायब हो गए हों। ऐसा लग रहा है कि पूरा आकाश ही धरती पर आ गया हो केवल झरने की आवाज़ ही सुनाई दे रही है। प्रकृति का ऐसा भयानक रूप देख कर शाल के पेड़ डर कर धरती के अंदर धंस गए हैं। चारों ओर धुँआ होने के कारण लग रहा है कि तालाब में आग लग गई है। ऐसा लग रहा है कि ऐसे मौसम में इंद्र भी अपना बादल रूपी विमान ले कर इधर उधर जादू का खेल दिखता हुआ घूम रहा है।
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