Geography, asked by hp0203310p324, 10 months ago

पठित पद्यांश (क)
उधौ,तुम हो अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तें, नाहिन मन अनुरागी
पुरइनि पात रहत जल भीतर,ता रस देह न दागी।
ज्यों जल माह तेल की गागरी बूंद न ताको लगी।
प्रीति नदी में पाउँ न बोरया. रष्टि न रूप परागी।
'सूरदास 'अबला हम मोरी, गुर चाँटी ज्यों पागी।
उपर्युक्त पदयांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर दीजिए :
1 शब्दों के अर्थ बताइए:
बड़भागी-
अपरस-
2 प्रस्तुत पदयांश में गोपियाँ किसे संबोधित कर रही है और क्यों ?
3 उद्घव के विचार गोपियों के विचारों से कैसे अलग हैं ?​

Answers

Answered by shanyasakshi14
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Explanation:

ऊधौ , तुम हो अति बड़भागी । अपरस रहत सनेह तगा तैं , नाहिन मन अनुरागी। पुरइनि पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी। ज्यों जल मांह तेल की गागरि , बूँद न ताकौं लागी । प्रीति - नदी में पाँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी। 'सूरदास ' अबला हम भोरी , गुर चाँटी ज्यों पागी ॥ व्याख्या प्रस्तुत पद में गोपियों ने उदधव के ज्ञान- मार्ग और योग-साधना को नकारते हुए उनकी प्रेम-संबंधी उदासीनता को लक्ष्य कर व्यंग्य किया है साथ ही भक्ति-मार्ग में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए कहा है- हे उद्धव जी! आप बड़े भाग्यशाली हैं जो प्रेम के बंधन में नहीं बंधे और न आपके मन में किसी के प्रति कोई अनुराग जगा। जिस प्रकार जल में रहनेवाले कमल के पत्ते पर एक भी बूँद नहीं ठहरती,जिस प्रकार तेल की गगरी को जल में भिगोने पर उस पानी की एक भी बूँद नहीं ठहर पाती,ठीक उसी प्रकार आप श्री कृष्ण रूपी प्रेम की नदी के साथ रहते हुए भी उसमें स्नान करने की बात तो दूर आप पर तो श्रीकृष्ण-प्रेम की एक छींट भी नहीं पड़ी। अत: आप भाग्यशाली नहीं हैं क्योंकि हम तो श्रीकृष्ण के प्रेम की नदी में डूबती-उतराती रहती हैं। हे उद्धव जी! हमारी दशा तो उस चींटी के समान है जो गुड़ के प्रति आकर्षित होकर वहाँ जाती और वहीं पर चिपक जाती है और चाहकर भि अपने को अलग नहीं कर पाती और अपने अंतिम साँस तक बस वहीं चिपके रहती है।

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