pausa purvi che vatavaran, pratyekpausacha nisrgani ghetlela anubhav,
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लिंगभैरवी की प्रतिष्ठा से जुड़े वे तीन दिन, अपने पूरे परिवेश और महत्व के साथ, वास्तव में बहुत ही रोमांचक रहे। 28 जनवरी, 2010, मंगलवार, शाम पाँच बजे, लगभग 5000 ईशा साधक, मंदिर प्रांगण में, बाँस और ताड़ पत्रों से बने मंडप तले, स्थापना समारोह आरंभ होने की प्रतीक्षा में थे। श्वेत वस्त्रों तथा भैरवी के लाल अंगवस्त्रों ने सारे वातावरण को अनूठे ही रंग में रंग दिया था। वातावरण का रोमांच बढ़ता ही जा रहा था।
इसके बाद, सद्गुरु पधारे, लाल किनारी वाले सुंदर श्वेत चोग में सजे गुरुदेव अपने मग्न और आनंदी स्वभाव के बीच, ठोस पारे से आकृतियाँ तैयार करते हुए प्रवचन देते रहे। मुझे याद आ गया, उन्होंने इस प्रसंग से पिछले दर्शन के दौरान क्या कहा था - ये प्रक्रिया समझने के लिहाज़ से बहुत ही कठिन और अविश्वसनीय होने वाली है इसलिए हमें बताया गया था कि केवल, ‘उसमें खो जाएँ’, डूब कर उसके साक्षी बनें। मैंने उनकी सलाह को ही माना और ऐसा लगा मानो प्राचीन मिस्र या एटलांटिस में घट रही किसी घटना का साक्षी हो रही हूँ।
उनका तरल पारायुक्त मेरूदंड भीतर डाला गया और कुछ ही क्षणों में सद्गुरु ने, उनके आकार को प्रकट किया - सबसे पहले नेत्र दिखे.....
दूसरा दिन आया और हम देवी के जन्म के निकट आ गए। उनका तरल पारायुक्त मेरूदंड भीतर डाला गया और कुछ ही क्षणों में सद्गुरु ने, उनकी आकृति को प्रकट किया - सबसे पहले नेत्र दिखे.....लोगों की भीड़ से आनंद व उल्लास की लहर उठी। मैं भी उस लहर का हिस्सा बन गई, पहले तो मैं उन नेत्रों को देख भयभीत हुई - एक भयंकर योद्धा के रूप में दिव्य स्त्रैण ऊर्जा! परंतु शीघ्र ही उनका वह रूप सौम्य दिखने लगा, देख कर लगा मानो कोई नवजात कौतूहल से ताक रहा हो और मेरे भीतर, उस नवजात देवी के लिए स्नेहमयी करुणा जाग उठी। जन्म के उन क्षणों के बीच, जब सद्गुरु वापस घर चले गए, वहाँ के परिवेश का वर्णन नहीं किया जा सकता। सद्गुरु की आँखों में आँसूं थे। वह एक मनोहारी तथा विनीत दृश्य था।
रात को लगभग तीन बजे के करीब, एक विशालकाय सोलह टन की ग्रेनाइट शिला से, देवी की ऊपरी हिस्से की छत को ढाँप दिया गया, भीड़ की जय-जयकार से सारा परिवेश गूँज उठा। हम सबके दिल एक साथ, साउंड्स ऑफ़ ईशा की धुनों पर धड़क रहे थे, उनके अद्भुत वाद्य यंत्रों की धुनों ने, परिवेश की ऊर्जा तथा हमारे प्रयत्नों को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मैं अपनी पूरी सौ प्रतिशत भागीदारी चाहती थी, और यह मेरा कर्तव्य बनता था कि मैं ऊर्जा गँवा न दूँ और सद्गुरु पर पड़ने वाले सामूहिक भार का हिस्सा बनने से बचूँ। सद्गुरु ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वे उस प्रसंग को एक छोटा और निजी प्रसंग ही रखना चाहते थे, परंतु उन्होंने अंत में यही विकल्प चुना कि इसे अधिक से अधिक लोग साक्षी भाव से देखें - यहाँ मैं इस अवसर को पाने के लिए ‘विशेषाधिकार’ शब्द का प्रयोग भी नहीं करना चाहूँगी, वह शब्द मेरे भाव को प्रकट नहीं कर सकता!