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Answers
QUESTION :-
दी गई पंक्तियों का भावार्थ लिखिए :-
(क) फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा, फिर स्वयं को देखकर भोली कली से यह कहा।
(ख) चार दिन की जिंदगी, खुद को जिए तो क्या जिए,
बात तो तब है कि जब, मर जाएँ औरों के लिए।
(ग) दूसरे दिन मैंने देखा वो कली खिलने लगी, शक्ल सूरत में बहुत कुछ फूल से मिलने लगी।
ANSWER :-
बहुत रोकता था सुखिया को,
‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।
शब्दार्थ –
निहार – देखना
व्याख्या – कवि कहता है कि इस कविता का मुख्य पात्र अपनी बेटी जिसका नाम सुखिया था, उसको बार-बार बाहर जाने से रोकता था। लेकिन सुखिया उसकी एक न मानती थी और खेलने के लिए बाहर चली जाती थी। वह कहता है कि सुखिया का न तो खेलना रुकता था और न ही वह घर के अंदर टिकती थी। जब भी वह अपनी बेटी को बाहर जाते हुए देखता था तो उसका हृदय डर के मारे काँप उठता था। वह यही सोचता रहता था कि किसी तरह उसकी बेटी उस महामारी के प्रकोप से बच जाए। वह किसी तरह इस महामारी की चपेट में न आए।
भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
शब्दार्थ –
तनु – शरीर
ताप-तप्त – ज्वर से पीड़ित
व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया के पिता को जिस बात का डर था वही हुआ। एक दिन सुखिया के पिता ने पाया कि सुखिया का शरीर बुखार से तप रहा था। कवि कहता है कि उस बच्ची ने बुखार के दर्द में भी अपने पिता से कहा कि उसे किसी का डर नहीं है। उसने अपने पिता से कहा कि वह तो बस देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहती है ताकि वह ठीक हो जाए।
क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव नव उपाय की
चिंता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण घनों में कब रवि डूबा,
कब आई संध्या गहरी।
शब्दार्थ –
शिथिल – कमजोर, ढीला
अवयव – अंग
स्वर्ण घन – सुनहरे बादल
व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया का गला इतना कमजोर हो गया था कि उसमें से आवाज़ भी नहीं आ रही थी। उसके शरीर का अंग-अंग कमजोर हो चूका था। उसका पिता किसी चमत्कार की आशा में नए-नए तरीके अपना रहा था परन्तु उसका मन हमेशा चिंता में ही डूबा रहता था। चिंता में डूबे सुखिया के पिता को न तो यह पता चलता था कि कब सुबह हो गई और कब आलस से भरी दोपहर ढल गई। कब सुनहरे बादलों में सूरज डूबा और कब शाम हो गई। कहने का तात्पर्य यह है कि सुखिया का पिता सुखिया की चिंता में इतना डूबा रहता था कि उसे किसी बात का होश ही नहीं रहता था।
सभी ओर दिखलाई दी बस,
अंधकार की ही छाया,
छोटी सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया।
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते से अंगारों से,
झुलसी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।
शब्दार्थ –
ग्रसना – निगलना
तिमिर – अंधकार
व्याख्या – कवि कहता है कि चारों ओर बस अंधकार ही अंधकार दिखाई दे रहा था जिसे देखकर ऐसा लगता था जैसे कि इतना बड़ा अंधकार उस मासूम बच्ची को निगलने चला आ रहा था। कवि कहता है कि बच्ची के पिता को ऊपर विशाल आकाश में चमकते तारे ऐसे लग रहे थे जैसे जलते हुए अंगारे हों। उनकी चमक से उसकी आँखें झुलस जाती थीं। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि बच्ची का पिता उसकी चिंता में सोना भी भूल गया था जिस कारण उसकी आँखे दर्द से झुलस रही थी।
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देख रहा था जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांति सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
शब्दार्थ –
सुस्थिर – जो कभी न रुकता हो
अटल – जिसे हिलाया न जा सके
व्याख्या – कवि कहता है कि जो बच्ची कभी भी एक जगह शांति से नहीं बैठती थी, वही आज इस तरह न टूटने वाली शांति धारण किए चुपचाप पड़ी हुई थी। कवि कहता है कि उसका पिता उसे झकझोरकर खुद ही पूछना चाहता था कि उसे देवी माँ के प्रसाद का फूल चाहिए और वह उसे उस फूल को ला कर दे।