please send any one poem written by any of the three poets in hindi
1. मैथिलीशरण गुप्त
2. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
3. रवीन्द्रनाथ टैगोर
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Answer:
1. कुशलगीत / मैथिलीशरण गुप्त
हाँ, निशान्त आया,
तूने जब टेर प्रिये, कान्त, कान्त, उठो, गाया—
चौँक शकुन-कुम्भ लिये हाँ, निशान्त गाया ।
आहा! यह अभिव्यक्ति,
द्रवित सार-धार-शक्ति ।
तृण तृण की मसृण भक्ति
भाव खींच लाया ।
तूने जब टेर प्रिये, “कान्त, उठो” गाया !
मगध वा सूत गये,
किन्तु स्वर्ग-दूत नये,
तेरे स्वर पूत अये,
मैंने भर पाया ।
तूने जब टेर प्रिये, “कान्त, उठो” गाया
2.धूलि में तुम मुझे भर दो
धूलि में तुम मुझे भर दो।
धूलि-धूसर जो हुए पर
उन्हीं के वर वरण कर दो
दूर हो अभिमान, संशय,
वर्ण-आश्रम-गत महामय,
जाति-जीवन हो निरामय
वह सदाशयता प्रखर दो।
फूल जो तुमने खिलाया,
सदल क्षिति में ला मिलाया,
मरण से जीवन दिलाया सुकर जो वह मुझे वर दो
3.होंगे कामयाब
होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन।
हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ, एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन।
रवीन्द्रनाथ टैगोर
Answer:
भाषा का संदेश सुनो, हे
भारत! कभी हताश न हो।
बता क्या है फिर अरुणोदय से
उज्जवल भाग्याकाश न हो॥
दिन खोटे क्यों न हों तुम्हारे किंतु आप तुम खरे रहो,
साथ छोड़ दे क्यों न सफलता किंतु धैर्य तुम धरे रहे।
ख़ाली हाथ हुए, हो जाओ, पर साहस से भरे रहो,
हरि के कर्मक्षेत्र! हरे हो और सर्वदा हरे रहो॥
बात क्या कि फिर देश तुम्हारा
पूरा पुनर्विकाश न हो।
भाषा का संदेश सुनो, हे
भारत! कभी हताश न हो॥
मार्ग सूझते नहीं, न सूझे, किंतु अटल तुम अड़े रहो,
आगे बढ़ना कठिन हुआ तो हटो न पीछे, खड़े रहो।
विविध बंधनों में जकड़े हो, रहो, किंतु तुम कड़े रहो,
जी छोटा मत करो, बड़ों के वशंज हो तुम बड़े रहो॥
बात क्या कि फिर यहाँ तुम्हारा
पावन पूर्व प्रकाश न हो।
भाषा का संदेश सुनो, हे
भारत! कभी हताश न हो॥
तुम में हो या न हो शेष कुछ पर हो तो तुम आर्य अभी,
सूख गया तनु तक तो सूखे, रक्त-मांस हो या कि न भी।
अरे, हड्डियाँ तो शरीर में बनी हुई हैं वही अभी—
जिनसे विश्रुत वज्र बना था, सिद्ध हुए सुर-कार्य सभी!
बात क्या कि फिर देश तुम्हारे
पाप पतन का नाश न हो।
भाषा का संदेश सुनो, हे
भारत! कभी हताश न हो॥
नहीं रहे अधिकार तुम्हारे, न रहें, पर वे मिटे नहीं,
जन्म-सिद्ध अधिकार किसी के मिट सकते हैं भला कहीं?
भूमि वहीं है, जहाँ निरंतर सभी सिद्धियाँ सिद्ध रहीं,
जगत जानता है कि हुआ था आत्मबोध उत्पन्न वहीं॥
बात क्या कि फिर छिन्न-भिन्न यह
पराधीनता-पाश न हो।
भाषा का संदेश सुनो, हे
भारत! कभी हताश न हो॥
Explanation:
कहते हो, ‘‘नीरस यह
बन्द करो गान
कहाँ छन्द, कहाँ भाव
कहाँ यहाँ प्राण ?
था सर प्राचीन सरस
सारस-हँसों से हँस
वारिज-वारिज में बस
रहा विवश प्यार
जल-तरंग ध्वनि, कलकल
बजा तट-मृदंग सदल
पैंगें भर पवन कुशल
गाती मल्लार।’
आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में
आओ गन्धों में, वर्णों में, गानों में
आओ अंगों में तुम, पुलकित स्पर्शों में
आओ हर्षित सुधा-सिक्त सुमनों में
आओ मुग्ध मुदित इन दोनों नयनों में
आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में
आओ निर्मल उज्जवल कान्त
आओ सुन्दर स्निग्ध प्रशान्त
आओ, आओ है वैचित्र्य-विधानों में
आओ सुख-दुख में तुम आओ मर्मों में
आओ नित्य-नित्य ही सारे कर्मों में
आओ, आओ सर्व कर्म-अवसानों में
आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों मेंमैं तो यहां रहा हूं गाने को ही गीत तुम्हारा
देना अपनी जगत-सभा में स्थान मुझे थोड़ा-सा
मैं न रहा हूं किसी का, नाथ! तुम्हारे भव में
इस अकर्म के प्राण रहे बजते अपने ही स्वर में
करूं रात को नीरव मन्दिर में आराधन जब मैं
आदेशित करना तब मुझको, हे राजन! गाने को
प्रात: जब झंकृत हो वीणा नभ में स्वर्णिम स्वर में,
दूर नहीं रह जाऊं तब मैं, मिले मान इतना-सा यहां गीत जो मैं गाने को है आया,
नहीं गीत वह मैं तो हूं गा पाया
आज तलक स्वर ही साधा है मैंने
केवल कुछ गा लेना ही है चाहा
स्वर थोड़ा भी सध न सका है मेरा
वाक्यों में न शब्द अब तक बँध पाये
गा पाने की व्याकुलता ही केवल
रही उभरती है प्राणों में मेरे
खिला नहीं है फूल आज तक भी तो
चलती रही हवा ही केवल अब तक
देख न पाया मुखड़ा मैं उसका
सुन न सका हूं मैं तो उसकी वाणी
पगध्वनि ही मैं पल-पल सुनता उसकी
मेरे दर होकर वह आता-जाता
भजन, पूजन, साधन, आराधन सब कुछ रहें पड़े,
रुद्ध द्वार मन्दिर के कोने में है क्यों तू रे
अन्धकार में छिपा हुआ है तू मन-ही-मन अपने
लगा हुआ है किसके पूजन में संगोपन में
नेत्र खोलकर देख, देवता हैं न यहां घर में
वे हैं जहां किसान काटते मिट्टी, कृषि करते हैं
श्रमिक तोड़ते पत्थक पथ-निर्माण जहां करते
धूप ताप वर्षा में वे तो साथ उन्हीं के हैं
लगी धूल-मिट्टी है उनके दोनों हाथों में
आ जा तू भी वस्त्र त्याग शुचि उन सा ही रज में
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
ओ तू चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
यदि कोई भी ना बोले ओरे
ओ रे ओ अभागे कोई भी ना बोले
यदि सभी मुख मोड़ रहे सब डरा करे
तब डरे बिना ओ तू मुक्त कंठ
अपनी बात बोल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
यदि लौट सब चले ओ रे ओ रे ओ अभागे लौट सब चले
यदि रात गहरी चलती कोई गौर ना करे
तब पथ के कांटे ओ तू लहू लोहित चरण तल चल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे