Hindi, asked by neharika20, 10 months ago

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Answered by anitasingh0955
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1.कबीरदास जी के अनुसार मनुष्य को इस प्रकार की वाणी बोलनी चाहिए, जिसमें अहंकार न हो। ऐसी वाणी, बोलने वाले को शीतलता प्रदान करती है और सुनने वाले को सुख प्रदान करती है। अर्थात्‌ यदि कोई मनुष्य बिना अंहकार वाली बातें करता है तो उसे बोलते समय स्वयं को बहुत अच्छा लगता है और सुनने वाला व्यक्ति भी उसकी बातों से खुशी ही पाता है।

2. हिरण कस्तूरी की खुश्बू से मुग्ध होकर उसे वन में चारों तरफ़ ढूंढ़ता रहता है। परन्तु वह इस बात से अन्जान होता है कि कस्तूरी और कहीं नहीं उसकी पेट में स्थित कुंडलि में है। ऐसे ही मनुष्य ईश्वर को मंदिर तथा मस्जिद में ढूँढता है परंतु उसे पता नहीं होता कि राम तो उसके रोम-रोम में निवास करते हैं।

कबीर के दोहे हिंदी व्याख्या

कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।

ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥

कस्तूरी कस्तूरी एक सुगन्धित जैलिनुमा प्रदार्थ (सूखने के बाद सख्त काले रंग का ) होता है जो की हिरणों के विशेष प्रजाति "कस्तूरी मृग"की नाभि से प्राप्त किया जाता है। यह नर कस्तूरी हिरण के नाभि (गुदा के पास एक ग्रंथि ) में होता है। हिरण से निकाल कर इसे सुखाने के बाद सुगन्धित प्रदार्थों और शराब आदि बनाने में कार्य में लिया जाता रहा है। चीन की प्राचीन चिकित्सा पद्धति में इससे कई प्रकार की ओषधियों का निर्माण भी होता है।

कुण्डली : नाभी

बसै : रहना।

मृग: हिरण।

बन : जंगल।

माहि: के अंदर।

घटी घटी : हृदय में।

दोहे का हिंदी भावार्थ : ईश्वर कहाँ है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे शास्त्रों और विद्वानों के द्वारा बड़े ही जटिल शब्दों में प्रदर्शित किया जाता रहा है जिसे समझना एक साधारण आदमी के लिए बहुत ही मुश्किल प्रतीत होता है। कबीर साहेब ने इसे बड़े ही साधारण शब्दों में समझाते हुए कहा की जैसे कस्तूरी हिरण की नाभि में ही होता है, लेकिन वह उसे जंगल में जगह जगह ढूंढता फिरता है, वैसे ही हमारे अंदर ही /आत्मा के अंदर ईश्वर का वाश है लेकिन उसे समझने के अभाव में हम उसे, मंदिर मस्जिद, तीर्थ, एकांत, तप और ना जाने कहाँ कहाँ ढूंढते हैं। सत्य आचरण, मानव के मूल गुणों को अपनाकर हम ईश्वर के नजदीक जा सकते हैं, जैसे की कबीर साहेब की एक अन्य वाणी में उल्लेख है

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाँहि।

सब अँधियारा मिटी गया दीपक देख्या माँहि॥

जब मनुष्य का मैं यानि अहँ उसपर हावी होता है तो उसे ईश्वर नहीं मिलते हैं। जब ईश्वर मिल जाते हैं तो मनुष्य का अस्तित्व नगण्य हो जाता है क्योंकि वह ईश्वर में मिल जाता है। ये सब ऐसे ही होता है जैसे दीपक के जलने से सारा अंधेरा दूर हो जाता है।

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