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दुनिया कैसे वजूद में आई? पहले क्या थी? किस बिंदु से इसकी यात्रा शुरू हुई? इन प्रश्नों के उत्तर विज्ञान अपनी तरह से देता है, धर्मिक ग्रंथ अपनी-अपनी तरह से। संसार की रचना भले ही कैसे हुई हो लेकिन धरती किसी एक की नहीं है। पंछी, मानव, पशु, नदी, पर्वत, समंदर आदि की इसमें बराबर की हिस्सेदारी है। यह और बात है कि इस हिस्सेदारी में मानव जाति ने अपनी बुद्धि से बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी कर दी हैं। पहले पूरा संसार एक परिवार के समान था अब टुकड़ों में बँटकर एक-दूसरे से दूर हो चुका है। पहले बड़े-बड़े दालानों-आँगनों में सब मिल-जुलकर रहते थे अब छोटे-छोटे डिब्बे जैसे घरों में जीवन सिमटने लगा है। बढ़ती हुई आबादियों ने समंदर को पीछे सरकाना शुरू कर दिया है, पेड़ों को रास्तों से हटाना शुरू कर दिया है, फैलते हुए प्रदूषण ने पंछियों को बस्तियों से भगाना शुरू कर दिया है। बारूदों की विनाशलीलाओं ने वातावरण को सताना शुरू कर दिया। अब गरमी में ज़्यादा गरमी, बेवक्त की बरसातें, ज़लज़ले,सैलाब, तूफ़ान और नित नए रोग, मानव और प्रकृति के इसी असंतुलन के परिणाम हैं। नेचर की सहनशक्ति की एक सीमा होती है।
आप स्वार्थ से चाह कर भी बच नहीं सकते। ‘मैं स्वार्थी नहीं होना चाहता, मैं स्वार्थी नहीं होना चाहता...’-ऐसी सोच रखना भी तो स्वार्थ है। ख़ुद को गंभीरता से देखें और बताएँ, क्या आप वास्तव में स्वार्थी न बनने के काबिल हैं? चाहे आप जैसे भी देखें, आप केवल अपने ही नज़रिए से जीवन को समझ सकते हैं। तो किसी को भी निःस्वार्थी कहा ही नहीं जा सकता। नैतिकता से ख़ुद को भटकाएँ मत। स्वार्थी न होकर देखें, आप केवल ख़ुद को छल रहे होंगे। निःस्वार्थता एक ऐसा झूठ है जिसे नैतिकता ने संसार में रचा है, जिससे अनेक व्यक्ति छले जाते रहे हैं।