Social Sciences, asked by kashak77, 11 months ago

Prachin Adhunik sinchai ke tarike k bare mein likhe​

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Answered by ItsAsad
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भारत एशिया के उन देशों में से है जहाँ कई शताब्दियों से कृषक समुदाय फलता-फूलता रहा है। खेती-बाड़ी पर आधारित इस व्यवस्था की अपनी अलग सांस्कृतिक परम्परा बन गई। जिसके संयोग से अपनी पूर्ववर्ती विरासत के साथ विविधताओं से भरी बहुआयामी परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज विकसित हुए। इस तरह सुदृढ़ परम्पराओं वाले भारत को पहला जबरदस्त झटका मध्य युग के उन अनेक आक्रमणकारियों से नहीं लगा बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से लगा था और वह भी इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के पूरा होने के बाद। भारत को महानगरीय सभ्यता से जोड़ने के ब्रिटेन के साम्राज्यवादी प्रयास से भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जड़ें हिल गईं। दो शताब्दियों तक चले ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में दूरगामी असर वाले परिवर्तन किए गए। कुछ बदलाव तो इतने जबरदस्त थे कि इनसे देश की आर्थिक व्यवस्था का नक्शा ही बदल गया। ब्रिटिश शासक अपने साथ पश्चिमी विज्ञान और बुद्धिवादी मानवीय मूल्य भी भारत लाए। हालाँकि उन्होंने ऐसा समझ-बूझकर नहीं किया, बल्कि अनजाने में ही ये बातें भारत पहुँची, लेकिन इनसे यहाँ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई।

आधुनिकीकरण के मार्ग में दूसरा मील का पत्थर 1947 में भारत की आजादी थी। स्वतंत्रता के बाद तो कृषि पर आधारित सामाजिक ढाँचे, इसके स्वरूप तथा उत्पादन में इस्तेमाल की जाने वाली टेक्नोलॉजी में व्यापक गुणात्मक परिवर्तन हुए हैं। लेकिन इसके बावजूद, कुछ क्षेत्रों में अब भी उत्पादन का परम्परागत अर्द्ध-सामंती तरीका जारी है। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि अर्द्धसामंती मूल्यों पर आधारित पतनशील व्यवस्था अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। जहाँ तक कृषि पर आधारित व्यवस्था में परिवर्तन का सवाल है ऐसा लगता है कि भारत, परम्परा से आधुनिकता की ओर के संक्रमण दौर से गुजर रहा है।

इस लेख में इन्हीं परिवर्तनों का संक्षिप्त विश्लेषण किया गया है। इसका उद्देश्य भारत में कृषि के क्षेत्र में बदलाव के स्वरूप को स्पष्ट करना तथा परम्परा और आधुनिकता के पारस्परिक प्रभाव का विश्लेषण करना है। यह दस्तावेज चार भागों में बँटा है। भूमिका के बाद पहले खण्ड में भारत में परम्परागत कृषक समाजों की मुख्य-मुख्य विशेषताएँ बताई गई हैं। इसके बाद दूसरे खण्ड में ब्रिटिश शासनकाल में देश की कृषि पर आधारित व्यवस्था में परिवर्तनों की चर्चा की गई है। तीसरे खण्ड में स्वतंत्रता के बाद कृषि सम्बन्धी बदलाव के उल्लेख के साथ-साथ परम्परा और आधुनिकता के एक-दूसरे पर असर की मुख्य विशेषताएँ भी बतलाई गई हैं। अंतिम हिस्से खण्ड चार में, उपसंहार दिया गया है।

भारत के कृषक समुदाय तथा भारतीय गाँवों को लेकर विद्वानों के बीच बहस होती रही है। इस लेख का उद्देश्य इस बात की जाँच पड़ताल करना नहीं है कि एशियाई देशों में उत्पादन की कोई विशेष प्रणाली अस्तित्व में रही है अथवा नहीं। इसका उद्देश्य मार्क्स द्वारा परिकल्पित भारतीय गाँव के बारे में छानबीन करना अथवा मध्यकालीन यूरोप के सामंतवाद से भारतीय सामंतवाद की भिन्नता स्पष्ट करना भी नहीं है। इसका उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन से पहले मध्य युग में कृषक समाज की मुख्य-मुख्य विशेषताएँ बताना है। यह चर्चा दो भागों में विभक्त है- 1. उत्पादन टेक्नोलॉजी और 2. उत्पादन सम्बन्ध।

उत्पादन टेक्नोलॉजी:

मध्ययुगीन टेक्नोलॉजी : मध्ययुगीन भारतीय कृषक समुदायों ने कई युगों के अनुभव से खेती बाड़ी की ऐसी प्रणालियाँ विकसित कर ली थीं जो क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुरूप थी। उन्होंने अपने इलाके को ध्यान में रखकर उपयुक्त टेक्नोलॉजी भी विकसित की। वे जहाँ एक ओर बारानी खेती वाले इलाकों में गेहूँ तथा अन्य मोटे अनाज पैदा करने में माहिर थे वहीं वे नदियों की घाटियों तथा समुद्र तटवर्ती डेल्टा क्षेत्र में धान और इसी तरह की अधिक पानी वाली फसलें उगाते थे। कृषक समुदायों ने सूखे और अकाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये आपदा प्रबंध की अपनी ही प्रणाली विकसित कर ली थी। हजारों वर्षों तक यह कौशल ज्यों का त्यों बना रहा और उत्पादन टेक्नोलॉजी की ही तरह इसमें भी कोई सुधार नहीं हो पाया। मार्क्स के अनुसार टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आए इस ठहराव का सबसे प्रमुख कारण आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बरकरार रहना था। परिवर्तन की हवा से बेखबर और शासकों के बदलने से अनजान भारत के आत्मनिर्भर गाँव सदियों तक जैसे के तैसे बने रहे।

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