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प्रकृति क्या मानवता की जन्मजात शत्रु है? क्या ईश्वर क्रूर निर्दयी एवं जल्लाद हैं? न, ऐसा नहीं है| न तो प्रकृति हमारी शत्रु है न ही ईश्वर कोई भयावह वस्तु हैं |अक्सर लोग प्राकृतिक आपदाओं के लिए भौतिक प्रदूषण को दोषी मानते हैं| यदि हम अध्यात्मिक ग्रंथों का गहनता से अध्यन करें तो सपष्ट हो जाता है कि भौतिक प्रदूषण से ज़्यादा सामाजिक प्रदूषण प्राकृतिक आपदाओं के लिए ज़िम्मेदार हैं और इन दोनो प्रदूषणों के लिए ज़िम्मेदार हैं हम| ये तो हम जानते ही हैं क़ि प्राकृतिक आपदा लौकिक न होकर किसी पारलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित होती है| गीता के श्लोक नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥{5/15} के अनुसार, ईश्वर ने तो किसी प्रकार के हस्तक्षेप से पल्ला झाड़ लिया है| वे कहते हैं कि "मैं न तो किसी के पाप लेता हूँ न ही किसी के पुण्य| मैं किसी कर्म से लिप्त नहीं होता|" जो कुछ भी होता है मनुष्य के अपने कर्मों का परिणाम है| प्रश्न ये उठता है कि मानव आख़िर पृथ्वी पर ही क्यों है और अपने किन गुनाहों की सज़ा भोग रहा है? ईसाई धर्म के धर्मग्रंथ बाइबल के आरंभ में ही मनुष्य के अपराध एवं परिणामस्वरूप स्वर्ग जैसे अपने मूल स्थान से निष्कासित किए जाने की कथा आती है| बाइबल के अनुसार स्वर्ग पर अधिकार को लेकर भगवान और शैतान में युद्ध होता है, फलस्वरूप शैतान हार जाता है और उसे नर्क में धकेल दिया जाता है| परंतु स्वर्ग को खो देने की टीस उसके मन से नहीं जाती| उसके पास इतना भी सैन्य बल नहीं है कि वह भगवान को हरा कर फिर से स्वर्ग का राज्य प्राप्त कर सके, उसे स्वर्ग में जाने की उसे अनुमति नहीं होती वह किसी तरह से मानव को पृथ्वी पर भिजवाने की साजिश रचता है| वह एक योजना के तहत साँप का रूप धारण कर के स्वर्ग में जाकर, स्वर्ग में रहने वाले आदम और हौवा को बहला फुसला कर ज्ञान अथवा बुद्धि का फल चखने को तैयार कर लेता है जिसको चखने की किसी को भी अनुमति नहीं होती, भगवान, आदम और हौवा या यूँ कहें कि प्रथम पुरुष एवं स्त्री को सज़ा के रूप में पृथ्वी पर भेज देते हैं|शैतान की योजना धीरे धीरे मानव को अपने चंगुल में फँसा कर अपनी संख्या बढ़ने की है| यहाँ से मानव की दुख भरी कहानी की शुरुआत होती है| यूँ समझिए कि पृथ्वी एक कारागार की तरह है, एक सुधार घर, जहाँ मानव को सुधारने के लिए भेजा गया है| सभी प्राणियों को एक तरह से कैदे बा मुशक्त हुई है| जब तक सज़ा पूर्ण नहीं होती या सुधर नहीं जाते तब तक जेल में रहना होगा और चक्की भी पीसनी होगी| जो प्रत्येक प्राणी अपने जन्म से ही पीसने लगता है और बदले में उसे रोटी कपड़ा मिलता रहता है| हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राणी किस अपराध की सज़ा काट रहे हैं नहीं मालूम पर इतना तो तय है कि जब भी मनुष्य अपने बुद्धि बल पर भरोसा कर के अपने इर्द गिर्द अपनी अटकलों के जाल बुनता जाता है उतना ही वह मोहज़ाल में फँसता चला जाता है और यही बुद्धि ही उसके विनाश का कारण बनती है| परंतु गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जब पृथ्वी का निर्माण किया गया था तभी ब्रह्मा जी ने वेदों आदि का भी सृजन किया था जिसमें मानव आदि जीवों के लिए कर्म करने की नियमावली बनाई गई थी| एक तरह का कोड आफ कंडक्ट बनाया गया था| मनुष्य को उसी नियमावली का अनुसरण करते हुए, केवल बुद्धि पर आश्रित न रह कर बुद्धि और विवेक दोनों का प्रयोग करते हुए कर्म करने थे और ऋषि मुनियों एवं अनेक महान आत्माओं को जेलर की भूमिका सौंपी गई थी ताकि मनुष्य के चाल चलन पर नज़र रखी जा सके और इसके आचार व्यवहार को दुरुस्त किया जा सके| मनुष्य अपनी ग़लतियों से तौबा कर ले और वापिस अपने मूल स्थान को प्राप्त कर सके| ईश्वर, प्रकृति और मानव का आपस में क्या रिश्ता है| आओ कुछ एक अध्यात्मिक ग्रंथों पर आधारित तथ्यों एवं कथ्यो को समक्ष रख कर समझने का प्रयास करते हैं| गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि ईश्वर यानी कि, वे स्वयं, केवल एक ही हैं और चेतन हैं| प्रकृति उनकी शक्ति है जो कि जड़ है और जीव, ईश्वर और प्रकृति के संयोग से उत्पन्न हुआ है| क्योंकि ईश्वर स्वयं किसी कर्म से लिप्त नहीं होते इसलिए सभी कार्यकारिणी एवं न्यायपालिका शक्तियाँ प्रकृति के पास हैं| प्रकृति जहाँ अपना सर्वस्व न्योछावर कर जीवों का पोषण करती है वहीं जीवों को दंडित करने के अधिकार भी प्रकृति के ही पास हैं| सूर्य, जल, वायु, पृथ्वी, अन्य ग्रह एवं नक्षत्र आदि प्रकृति के ही घटक हैं| सूर्य, पृथ्वी, जल एवं वायु प्रत्यक्ष रूप से हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं| प्रतिदिन सूर्य करोड़ों गेलन पानी शुद्ध कर के वायु की सहायता से उच्त्तम स्थानों तक पहुँचवाता है और भंडारण करता है ताकि 365 दिन 24 सों घंटे जल आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके| वर्षा आदि में भी इन्हीं चारों घटकों का योगदान है, सभी जानते हैं|
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