Social Sciences, asked by khushbur302, 1 month ago

रंगभेद के खिलाफ दक्षिण अफ्रीकी लोगों के संघर्ष का वर्णन कीजिए​

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6 नवंबर 1913 के दिन महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीतियों के खिलाफ 'द ग्रेट मार्च' का नेतृत्व किया था. इस मार्च में 2 हजार भारतीय खदान कर्मियों ने न्यूकासल से नेटाल तक की पदयात्रा की थी. बताया जाता है कि जब महात्मा गांधी ने इस मार्च की अगुवाई की थी उस वक्त 127 महिलाएं, 57 बच्चे और 2037 पुरुष शामिल थे.

Explanation:

दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले डच मूल के श्वेत नागरिकों की भाषा अफ़्रीकांस में 'एपार्थाइड' का शाब्दिक अर्थ है, पार्थक्य या अलहदापन। यही अभिव्यक्ति कुख्यात रंगभेदी अर्थों में 1948 के बाद उस समय इस्तेमाल की जाने लगी जब दक्षिण अफ़्रीका में हुए चुनावों में वहाँ की नैशनल पार्टी ने जीत हासिल की और प्रधानमंत्री डी.एफ़. मलन के नेतृत्व में कालों के ख़िलाफ़ और श्वेतांगों के पक्ष में रंगभेदी नीतियों को कानूनी और संस्थागत जामा पहना दिया गया। नैशनल पार्टी अफ़्रीकानेर समूहों और गुटों का एक गठजोड़ थी जिसका मकसद गोरों की नस्ली श्रेष्ठता के दम्भ पर आधारित नस्ली भेदभाव के कार्यक्रम पर अमल करना था। मलन द्वारा चुनाव के दौरान दिये गये नारे ने ही एपार्थाइड को रंगभेदी अर्थ प्रदान किये। रंगभेद के दार्शनिक और वैचारिक पक्षों के सूत्रीकरण की भूमिका बोअर (डच मूल) राष्ट्रवादी चिंतक हेनरिक वरवोर्ड ने निभायी।  इसके बाद रंगभेद अगली आधी सदी तक दक्षिण अफ़्रीका के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन पर छा गया। उसने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भी प्रभावित किया। नब्बे के दशक में अफ़्रीकन नैशनल कांग्रेस और नेलसन मंडेला के नेतृत्व में बहुसंख्यक अश्वेतों का लोकतांत्रिक शासन स्थापित होने के साथ ही रंगभेद का अंत हो गया।

दक्षिण अफ़्रीका के संदर्भ में नस्ली भेदभाव का इतिहास बहुत पुराना है। इसकी शुरुआत डच उपनिवेशवादियों द्वारा कैप टाउन को अपने रिफ्रेशमेंट स्टेशन के रूप में स्थापित करने से मानी जाती है। एशिया में उपनिवेश कायम करने के लिए डच उपनिवेशवादी इसी रास्ते से जाते थे। इसी दौरान इस क्षेत्र की अफ़्रीकी आबादी के बीच रहने वाले युरोपियनों ने ख़ुद को काले अफ़्रीकियों के हुक्मरानों की तरह देखना शुरू किया। शासकों और शासितों के बीच श्रेष्ठता और निम्नता का भेद करने के लिए कालों को युरोपियनों से हाथ  भर दूर रखने का आग्रह पनपना ज़रूरी था। परिस्थिति का विरोधाभास यह था कि गोरे युरोपियन मालिकों के जीवन में कालों की अंतरंग उपस्थिति भी थी। इसी अंतरंगता के परिणामस्वरूप एक मिली-जुली नस्ल की रचना हुई जो ‘अश्वेत’ कहलाए।

हालाँकि रंगभेदी कानून 1948 में बना, पर दक्षिण अफ़्रीका की गोरी सरकारें कालों के ख़िलाफ़ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाना जारी रखे हुए थीं। कुल आबादी के तीन-चौथाई काले थे और अर्थव्यवस्था उन्हीं के श्रम पर आधारित थी। लेकिन सारी सुविधाएँ मुट्ठी भर गोरे श्रमिकों को मिलती थीं। सत्तर फ़ीसदी ज़मीन भी गोरों के कब्ज़े के लिए सुरक्षित थी। इस भेदभाव ने उन्नीसवीं सदी में एक नया रूप ग्रहण कर लिया जब दक्षिण अफ़्रीका में सोने और हीरों के भण्डार होने की जानकारी मिली। ब्रिटिश और डच उपनिवेशवादियों के सामने स्पष्ट हो गया कि दक्षिण अफ़्रीका की ख़ानों पर कब्ज़ा करना कितना ज़रूरी है। सामाजिक और आर्थिक संघर्ष की व्याख्या आर्थिक पहलुओं की रोशनी में की जाने लगी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की दक्षिण अफ़्रीकी राजनीति का मुख्य संदर्भ यही था।

1984 में हुए संवैधानिक सुधारों में जब बहुसंख्यक कालों को कोई जगह नहीं मिली तो बड़े पैमाने पर असंतोष फैला। दोनों पक्षों की तरफ़ से ज़बरदस्त हिंसा हुई। सरकार को आपातकाल लगाना पड़ा। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने उस पर और प्रतिबंध लगाए। शीत युद्ध के खात्मे और नामीबिया की आज़ादी के बाद रंगभेदी सरकार पर पड़ने वाला दबाव असहनीय हो गया। गोरे मतदाता भी अब पूरी तरह से उसके साथ नहीं थे। डच मूल वाला कट्टर राष्ट्रवादी बोअर अफ़्रीकानेर समुदाय भी वर्गीय विभाजनों के कारण अपनी पहले जैसी एकता खो चुका था। नैशनल पार्टी के भीतर दक्षिणपंथियों को अपेक्षाकृत उदार एफ़.डब्ल्यू. डि क्लार्क के लिए जगह छोड़नी पड़ी। क्लार्क ने नेलसन मंडेला और उनके साथियों को जेल से छोड़ा, राजनीतिक संगठनों से प्रतिबंध उठाया और 1992 तक रंगभेदी कानून ख़त्म कर दिये गये। बहुसंख्यक कालों को मताधिकार मिला। एएनसी अपना रैडिकल संघर्ष (जिसमें हथियारबंद लड़ाई भी शामिल थी) ख़त्म करने पर राजी हो गयी। सरकार और उसके बीच हुए समझौते के तहत 1994 में चुनाव हुआ जिसमें ज़बरदस्त जीत हासिल करके एएनसी ने सत्ता सँभाली और नेलसन मंडेला रंगभेद विहीन दक्षिण अफ़्रीका के पहले राष्ट्रपति बने। 

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