राजपूतों के उद्भव संबंधी वाद-विवाद की आलोचनात्मक चर्चा कीजिए।
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राजपूत उत्तर भारत का एक क्षत्रिय कुल माना जाता है जो कि 'राजपुत्र' का अपभ्रंश है। राजस्थान को मध्यकाल में 'राजपुताना' भी कहा गया है। पुराने समय में आर्य जाति में केवल चार वर्णों की व्यवस्था थी। राजपूत काल में प्राचीन वर्ण व्यवस्था समाप्त हो गयी थी तथा वर्ण के स्थान पर कई जातियाँ व उप जातियाँ बन गईं थीं।कुछ इतिहासकारों ने प्राचीन काल एवं मध्य काल को 'राजपूत काल' भी कहा है। इस काल के महत्त्वपूर्ण राजपूत वंशों में राष्ट्रकूट वंश, चालुक्य वंश, चौहान वंश, चंदेल वंश, परमार वंश एवं प्रतिहार वंश आते हैं। पृथ्वीराज चौहान और महाराणा प्रताप राजपूतो में अधिक प्रसिद्ध हुए। भारतीय सेना में राजपूतो के नाम पर राजपूत रेजिमेंट ओर राजपुताना राइफल भी बनाई गई |
हर्षवर्धन के उपरान्त भारत में कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के वृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो। इस युग में भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे। इनके राजा 'राजपूत' कहलाते थे तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को 'राजपूत युग' कहा गया है। राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध मे इतिहास में दो मत प्रचलित हैं।
कर्नल टोड व स्मिथ आदि के अनुसार राजपूत वह विदेशी जातियाँ है जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया था।
चंद्रबरदाई लिखते हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, गुर्जर-प्रतिहार व सोलंकी राजपूत वंश उत्पन्न हुए।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिंदू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं। दूसरी ओर गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत विदेशी नहीं है अपितु प्राचीन क्षत्रियों की ही संतान हैं | भारत में अन्य राजपूत वंश इन्हीं की संतान हैं। 'दशरथ शर्मा', 'डॉ. गौरी शंकर ओझा' एवं 'सी.वी. वैद्य' इस कथा को मात्र काल्पनिक मानते हैं।विदेशी उत्पत्ति के समर्थकों में महत्त्वपूर्ण स्थान 'कर्नल जेम्स टॉड' का है। वे राजपूतों को विदेशी सीथियन जाति की सन्तान मानते हैं। तर्क के समर्थन में टॉड ने दोनों जातियों (राजपूत एवं सीथियन) की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की समानता की बात कही है। उनके अनुसार दोनों में रहन-सहन, वेश-भूषा की समानता, मांसाहार का प्रचलन, रथ के द्वारा युद्ध को संचालित करना, याज्ञिक अनुष्ठानों का प्रचलन, अस्त्र-शस्त्र की पूजा का प्रचलन आदि से यह प्रतीत होता है कि राजपूत सीथियन के ही वंशज थे।
विलियम क्रुक ने 'कर्नल जेम्स टॉड' के मत का समर्थन किया है। 'वी.ए. स्मिथ' के अनुसार शक तथा कुषाण जैसी विदेशी जातियां भारत आकर यहां के समाज में पूर्णतः घुल-मिल गयीं। इन देशी एवं विदेशी जातियों के मिश्रण से ही राजपूतों की उत्पत्ति हुई। भारतीय इतिहासकारों में 'ईश्वरी प्रसाद' एवं 'डी.आर. भंडारकर' ने भारतीय समाज में विदेशी मूल के लोगों के सम्मिलित होने को ही राजपूतों की उत्पत्ति का कारण माना है। भण्डारकर तथा कनिंघम के अनुसार राजपूत विदेशी थे। इन तमाम विद्वानों के तर्को के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि राजपूत क्षत्रियों के वंशज थे, फिर भी उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण अवश्य था। अतः वे न तो पूर्णतः विदेशी थे, न तो पूर्णत भारतीय। उस काल में अधिकतर राजपूत राजा हिन्दू थे, यद्यपि कुछ जैन धर्म के भी समर्थक थे। वे ब्राह्मण और मन्दिरों को बड़ी मात्रा में धन और भूमि का दान करते थे। वे वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के पक्ष में थे। इसलिए कुछ राजपूती राज्यों में तो भारत की स्वतंत्रता और भारतीय संघ में उनके विलय तक ब्राह्मणों से अपेक्षाकृत कम लगान वसूल किया जाता था। इन विशेषाधिकारों के बदले ब्राह्मण राजपूतों को प्राचीन सूर्य और चन्द्रवंशी क्षत्रियों के वंशज मानने को तैयार थे