राखी प्रणाली की स्थापना की परिस्थितियों, इसके प्रसार और परिणामों का वर्णन करें।
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राष्ट्र संघ (लीग ऑफ़ नेशन्स) पेरिस शांति सम्मेलन के परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्ववर्ती के रूप में गठित एक अंतर्शासकीय संगठन था। 28 सितम्बर 1934 से 23 फ़रवरी 1935 तक अपने सबसे बड़े प्रसार के समय इसके सदस्यों की संख्या 58 थी। इसके प्रतिज्ञा-पत्र में जैसा कहा गया है, इसके प्राथमिक लक्ष्यों में सामूहिक सुरक्षा द्वारा युद्ध को रोकना, निःशस्त्रीकरण, तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों का बातचीत एवं मध्यस्थता द्वारा समाधान करना शामिल थे।[1] इस तथा अन्य संबंधित संधियों में शामिल अन्य लक्ष्यों में श्रम दशाएं, मूल निवासियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार, मानव एवं दवाओं का अवैध व्यापार, शस्त्र व्यपार, वैश्विक स्वास्थ्य, युद्धबंदी तथा यूरोप में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा थे।[2] राष्ट्र संघ के उद्देश्य एक आपसी विवाद सुलझाना शिक्षा की व्यवस्था करना दो सभी राष्ट्रों के भौतिक व मानसिक सहयोग ओपन देना 3:00 पर शांति समझौते के द्वारा सौंपे गए कर्तव्य को पूरा करना राशन के राशन के तीन प्रमुख अंग थे असेंबली काउंसिल सचिवालय इसके अलावा इसके 201 अंक थे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन राष्ट्र संघ की स्थापना के उद्देश्य तो विश्व समुदाय के अच्छे थे लेकिन यह मां शक्तियों के असहयोग और मनमानी गतिविधियों के कारण मात्र एक औपचारिक संगठन ही बनकर रह गया अपने उद्देश्य में इसे सफलता संघ के पीछे कूटनीतिक दर्शन ने पूर्ववर्ती सौ साल के विचारों में एक बुनियादी बदलाव का प्रतिनिधित्व किया। चूंकि संघ के पास अपना कोई बल नहीं था, इसलिए इसे अपने किसी संकल्प का प्रवर्तन करने, संघ द्वारा आदेशित आर्थिक प्रतिबंध लगाने या आवश्यकता पड़ने पर संघ के उपयोग के लिए सेना प्रदान करने के लिए महाशक्तियों पर निर्भर रहना पड़ता था। हालांकि, वे अक्सर ऐसा करने के लिए अनिच्छुक रहते थे।
प्रतिबंधों से संघ के सदस्यों को हानि हो सकती थी, अतः वे उनका पालन करने के लिए अनिच्छुक रहते थे। जब द्वित्तीय इटली-अबीसीनिया युद्ध के दौरान संघ ने इटली के सैनिकों पर रेडक्रॉस के मेडिकल तंबू को लक्ष्य बनाने का आरोप लगाया था, तो बेनिटो मुसोलिनी ने पलट कर जवाब दिया था कि “संघ तभी तक अच्छा है जब गोरैया चिल्लाती हैं, लेकिन जब चीलें झगड़ती हैं तो संघ बिलकुल भी अच्छा नहीं है”.[3]
1920 के दशक में कुछ आरंभिक विफलताओं तथा कई उल्लेखनीय सफलताओं के बाद 1930 के दशक में अंततः संघ धुरी राष्ट्रों के आक्रमऩ को रोकने में अक्षम सिद्ध हुआ। मई 1933 में, एक यहूदी फ्रांज बर्नहीम ने शिकायत की कि ऊपरी सिलेसिया के जर्मन प्रशासन द्वारा एक अल्पसंख्यक के रूप में उसके अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा था जिसने यहूदी-विरोधी कानूनों के प्रवर्तन को कई वर्ष तक टालने के लिए जर्मनों को प्रेरित किया था, जब तक कि 1937 में संबंधित संधि समाप्त नहीं हो गई, उसके बाद उन्होंने संघ के प्राधिकार का आगे पुनर्नवीकरण करने से इंकार कर दिया और यहूदी-विरोधी उत्पाड़न को पुनर्नवीकृत कर दिया। [4]
हिटलर ने दावा किया कि ये धाराएं जर्मनी की संप्रभुता का उल्लंघन करती थी। जर्मनी संघ से हट गया, जल्दी ही कई अन्य आक्रामक शक्तियों ने भी उसका अनुसरण किया। द्वित्तीय विश्व युद्घ की शुरुआत से पता चला कि संघ भविष्य में युद्ध न होने देने के अपने प्राथमिक उद्देश्य में असफल रहा था। युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसका स्थान लिया तथा संघ द्वारा स्थापित कई एजेंसियां और संगठन उत्तराधिकार में प्राप्त किए।