Social Sciences, asked by mithleshtripathi886, 10 months ago

राष्ट्रवाद की tegore की आलोचना को स्पष्ट कीजिये​

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Answered by Utkarshkesharwani933
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रविंद्रनाथ टैगोर और उनकी राष्ट्र/राज्य की संकल्पना

पुराणों में भस्मासुर नाम के राक्षस की एक कहानी मशहूर है. वह जिस किसी के भी सर पर हाथ रखता था, वह भस्म हो जाता था. आजकल संघ परिवार ने उसी भस्मासुर का रूप ले लिया है.उस ने हमारे राष्ट्रपुरुषों के सर पर हाथ रखना शुरू किया है. स्वामी विवेकानंद से योगी अरविंद, रामकृष्ण परमहंस, सरदार वल्लभ भाई पटेल, महात्मा गांधी तक उन के लपेट में आ गए और अब रविंद्रनाथ टैगोर की नौबत आ गयी. वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने मध्य प्रदेश के सागर संघ शिविर में अपने भस्मासुर के रूप का परिचय देते हुए कहा कि रविंद्रनाथ टैगोर ने अपने स्वदेशी समाज नामक किताब में हिंदू राष्ट्र की संकल्पना और आह्वान किया है (मराठी दैनिक लोकसत्ता, नागपुर, दि. 20.01.2015 अंक). पहली बात यह कि स्वदेशी समाज नाम की कोई किताब नहीं, बल्कि वहकुल तीस पन्नों का एक निबंध है जो टैगोर ने बंगभंग (1905) के तुरंत बाद वहां की पानी की समस्या से संबंधित एक टिप्पणी के रूप में लिखा था. उन्होंने उस में हिंदू राष्ट्र का कहीं भी समर्थन नहीं किया, बल्कि उन्होंने उस में यह कहा था कि आर्यों ने जब भारत पर आक्रमण किया, तब किस तरह यहां की स्थानीय जातियों ने उन्हें अपने भीतर समा लिया. बाद में फिर मुसलमान आएँ, उन्हें भी इसी तरह अपना लिया गया. इस भूमि की इसी खासियत को उन्होंने इस निबंध में उजागर किया. महत्त्व की बात यह है कि टैगोर ने हमेशा नेशन स्टेट (राष्ट्र-राज्य) संकल्पना की आलोचना की है. उन्होंने उसे ‘यह शुद्ध यूरोप की देन है’ ऐसा कहा है. अपने 1917 के 'नेशनलिज्म इन इंडिया’ नामक निबंध में उन्होंने साफ़ तौर पर लिखा है कि राष्ट्रवाद का राजनीतिक एवं आर्थिक संगठनात्मक आधार सिर्फ उत्पादन में वृद्धि तथा मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता प्राप्त करने का यांत्रिक प्रयास इतना ही है. राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः विज्ञापन तथा अन्य माध्यमोंका लाभ उठाकर राष्ट्र की समृद्धि एवं राजनीतिक शक्ति में अभिवृद्धि करने में प्रयुक्त हुई हैं. शक्ति की वृद्धि की इस संकल्पना ने राष्ट्रों मे पारस्परिक द्वेष, घृणा तथा भय का वातावरण उत्पन्न कर मानव जीवन को अस्थिर एवं असुरक्षित बना दिया है. यह सीधे सीधे जीवन के साथ खिलवाड है, क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाह्य संबंधों के साथ-साथ राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है. ऐसी परिस्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक है. फलस्वरूप, समाज तथा व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप प्राप्त कर लेता है.

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी आधार पर राष्ट्रवाद की आलोचना की है. उन्होंने राष्ट्र के विचार को जनता के स्वार्थ का एैसा संगठित रूप माना है, जिसमें मानवीयता तथा आत्मत्व लेशमात्र भी नहीं रह पाता है. दुर्बल एवं असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयास यह राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है. इस से उपजा साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक बनता है. राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि पर कोई नियंत्रण स्वंभव नहीं, इसके विस्तार की कोई सीमा नहीं. उसकी इस अनियांत्रित शक्ति में ही मानवता के विनाश के बीज उपस्थित हैं. राष्ट्रों का पारस्परिक संघर्ष जब विश्वव्यापी युद्ध का रूप धारण कर लेता है, तब उसकी संहारकता के सामने सब कुछ नष्ट हो जाता है. यह निर्माण का मार्ग नहीं, बल्कि विनाश का मार्ग है. राष्ट्रवाद की धारणा किस तरह शक्ति के आधार पर विभिन्न मानवी समुदायों में वैमनस्य तथा स्वार्थ उत्पन्न करती है, इस बात को उजागर करता रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह मौलिक चिंतन समूचे विश्व के लिए एक अमूल्य योगदान है, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक बताकर उन्हें भस्म करने का प्रयास कर रहे हैं!

भारतके लिए राष्ट्रवाद विकल्प नहीं बन सकता

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि भारत में राष्ट्रवाद नहीं के बराबर है. वास्तव में भारत में यूरोप जैसा राष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता. क्योंकि सामाजिक कार्यों में रूढ़िवादिता का पालन करने वाले यदि राष्ट्रवाद की बात करें तो राष्ट्रवाद कहां से प्रसारित होगा? उस ज़माने के कुछ राष्ट्रवादी विचारक स्विटजरलैंड ( जो बहुभाषी एवं बहुजातीय होते हुए भी राष्ट्र के रूप में स्थापित है) को भारत के लिए एक अनुकरणीय प्रतिरूप मानते थे. लेकिन रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह विचार था कि स्विटजरलैंड तथा भारत में काफी फ़र्क एवं भिन्नताएं हैं. वहां व्यक्तियों में जातीय भेदभाव नहीं है और वे आपसी मेलजोल रखते हैं तथा आंतरविवाह करते हैं, क्योंकि वे अपने को एक ही रक्त के मानते हैं. लेकिन भारत में जन्माधिकार समान नहीं है. जातीय विभिन्नता तथा पारस्परिक भेद भाव के कारण भारत में उस प्रकार की राजनीतिक एकता की स्थापना करना कठिन दिखाई देता है, जो किसी भी राष्ट्र के लिए बहुत आवश्यक है. टैगोर का मानना है की समाज द्वारा बहिष्कृत होने के भय से भारतीय डरपोक एवं कायर हो गए हैं. जहाँ पर खान-पान तक की स्वतंत्रता न हो, वहां राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ कुछ व्यक्तियों का सब पर नियंत्रण ऐसा ही होकर रहेगा.इस से निरंकुश राज्य ही जन्म लेगा और राजनैतिक जीवन में विरोध अथवा मतभेद रखने वाले का जीवन दूभर हो जाएगा. क्या ऐसी नाम मात्र स्वतंत्रता के लिए हम अपनी नैतिक स्वतंत्रता को तिलांजलि दे

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