रीढ़ की हड्डी
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार
कभी नही जो सह सकते हैं, शीश नवाकार अत्याचार
एक अकेले हों, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
निर्भय होकर घोषित करते, जो अपने उद्गार विचार
जिनकी जिह्वा पर होता है, उनके अंतर का अंगार
नहीं जिन्हें, चुप कर सकती है, आतताईयों की शमशीर नवाए
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
नहीं झुका करते जो दुनिया से करने को समझौता adjust
ऊँचे से ऊँचे सपनो को देते रहते जो न्यौता
दूर देखती जिनकी पैनी आँख, भविष्यत का तम चीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जो अपने कन्धों से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते हैं
पथ की बाधाओं को जिनके पाँव चुनौती देते हैं
जिनका बाँध नही सकती है लोहे की बड़ी जंजीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जो चलते हैं अपने छप्पर के ऊपर लूका धर कर
हर जीत का सौदा करते जो प्राणों की बाजी पर
कूद उदधि में नही पलट कर जो फिर ताका करते तीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
sharp
जिनको यह अवकाश नही है, देखें कब तारे अनुकूल
जिनकों यह परवाह नहीं है कब तक भद्रा, कब दिक्शूल
जिनके हाथों की चाबुक से चलती है उनकी तकदीर
हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
तुम हो कौन, कहो जो मुझसे सही गलत पथ लो तो जान
सोच सोच कर, पूछ पूछ कर बोलो, कब चलता
सत्पथ वह है, जिसपर अपनी छाती ताने जाते वीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
summary of this poem
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