रचना कौशल के प्रमुख पक्षों की विवेचक कीजिए
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किसी भी रचना के सृजन के समय उसे कलात्मक सौंदर्य प्रदान करने के लिए उपयोग में लायी गयी प्रविधियों को रचना कौशल कहा जाता है। यानि प्रस्तुतिकरण का वह विशिष्ट तरीका जो रचना को कलात्मक सौंदर्य प्रदान करन में सक्षम होता है उसे रचना कौशल कहते हैं। हालाँकि रचना कौशल कोई बीजगणितीय सूत्र नहीं है जिसके उपयोग से खास मनोवांछित परिणाम प्राप्त किया जा सके। यह पूर्णरूप से रचनाकार की निजी क्षमता पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना में रचना-कौशल का उपयोग किस तरह करता है। रचना-कौशल को परिभाषित करते हुए डॉ० बच्चन सिंह ने लिखा है- “साहित्य-सृजन के लिए गृहीत रूपात्मक प्रविधियों को तकनीक कहा जाता है। आधुनिक समीक्षा से स्पष्ट है कि जब हम वस्तु, कॉन्टेंट के संबन्ध में कुछ कहते हैं तो कला के संबन्ध में कुछ न कहकर अनुभव के संबन्ध में कहते हैं। आलोचक को आलोचक होने के लिए सर्व प्रथम ‘रूप’ का विश्लेषण करना चाहिए। वस्तु और रूप के बीच की विभाजक रेखा तकनीक है। लेखक अपने अनुभवों को तकनीक के माध्यम से तलाशता है, विश्लेषित करता है।
कथा-साहित्य में सामग्री का चयन, कथाओं, चरित्रों, स्थितियों आदि का संयोजन, वास्तविकता का ‘डिस्टॉर्टशन’ आदि तकनीक में ही अंतर्भुक्त है।.........प्रस्तुतिकरण का विशिष्ट तरीका तकनीक है और रचना से तकनीक अलग नहीं है। किसी एक तकनीक के आधार पर उपन्यास या किसी भी साहित्यिक विधा का मूल्यांकन संभव नहीं है। किसी भी रचना में अनेक प्रकार की तकनीक प्रयुक्त होती है। इनके अपने अंतर संबन्धों तथा संपूर्ण रचना की संरचना में उनके योगदान में ही तकनीक का महत्व है। तकनीक साधन है। स्वयं साध्य नहीं।”१ हालाँकि साध्य और साधन में शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध नहीं होता, दोनों में परस्पर अन्तरावलंबन होता है यानि रूप और वस्तु में द्वन्द्वात्मक एकता होती है। किसी भी लघुकथा की रचना में मूल वस्तु उसकी वैचारिक अंतर्वस्तु होती है जिसे प्रभावशाली बनाने के लिए हम जिस प्रविधि का उपयोग करते हैं वही रचना कौशल है। इसी बात को लघुकथा के संदर्भ में रचना-विधान के रूप में व्याख्यायित करते हुए निशांतर कहते हैं- “लघुकथा और उसके कथानक के उपर्युक्त अंतर को और स्पष्ट किया जाय तो यह निष्कर्ष निकलता है कि कच्चे माल ‘कथानक” को तैयार माल “लघुकथा” में परिवर्तित करने में जिन रूपात्मक प्रविधियों का उपयोग किया जाता है उसे समग्र रूप से तकनीक या “रचना-विधान” कहा जाता है।”२ इसको दूसरे शब्दों में यों कहा जाय कि- “किसी कलात्मक कृति के प्रस्तुत करने के विशिष्ट ढंग को कौशल कहते हैं अर्थात उस कृति के रूप-निर्माण और ढलन आदि की विशिष्ट योजना को कौशल या ‘तकनीक’ कहते हैं।.........
किसी भी कला-कृति में विशेष सौंदर्य उत्पन्न करने का जो बौद्धिक नियोजन किया जाता है उसी को कौशल कहते हैं; अर्थात वे सब साधन, प्रयोग तथा संयोजन मिलकर कौशल कहलाते हैं।” लघुकथा लेखन में जहाँ प्रगति के असीम द्वार खुलने की संभावनाएँ हैं इसको किसी निश्चित फ्रेम में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। फिर भी इसके लिए प्रयास तो होना ही चाहिए। लघुकथा या किसी भी साहित्य-विधा को श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए जिन कौशलों की जरूरत होती है उनमें कथानक, शिल्प, वैचारिक-पक्ष, शैली, संवेदनीयता और उसका कला-पक्ष प्रमुख हैं। इस सबसे अलग हटकर प्रमुख है -उसका प्रस्तुतिकरण। यह प्रस्तुतिकरण खुद में एक बहुत बड़ा कौशल होता है- जैसे वर्णनात्मक, भावात्मक, कलात्मक, विचारात्मक और चित्रात्मक। कथा की प्रस्तुति के जिन तरीकों का उपयोग किया जाता है उनमें उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और प्रथम पुरुष की शैली का उपयोग किया जाता है। इसके अलावे कथा-प्रस्तुति के और अन्य भेदों में खासकर लघुकथा के लिए संवाद, विवरण, पत्रात्मक शैली या पूर्वदिप्ती का उपयोग करके लघुकथा को अभीष्ट ऊँचाई दी जा सकती है।
लघुकथा को श्रेष्ठ कलात्मक रूप देने में जिन कौशलों का प्रयोग जरूरी है उनमें मेरी दृष्टि में प्रमुख हैं- १.शीर्षक, २.रूप-कौशल, ३.कथा-कौशल, ४.पात्र-योजना, ५.लक्ष्य-कौशल और ६.समाप्ति-कौशल। इन कौशलों को बिना समझे लघुकथा की उत्तम प्रस्तुति नहीं हो सकती।
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कथा-साहित्य में सामग्री का चयन, कथाओं, चरित्रों, स्थितियों आदि का संयोजन, वास्तविकता का ‘डिस्टॉर्टशन’ आदि तकनीक में ही अंतर्भुक्त है।.........प्रस्तुतिकरण का विशिष्ट तरीका तकनीक है और रचना से तकनीक अलग नहीं है। किसी एक तकनीक के आधार पर उपन्यास या किसी भी साहित्यिक विधा का मूल्यांकन संभव नहीं है। किसी भी रचना में अनेक प्रकार की तकनीक प्रयुक्त होती है। इनके अपने अंतर संबन्धों तथा संपूर्ण रचना की संरचना में उनके योगदान में ही तकनीक का महत्व है। तकनीक साधन है। स्वयं साध्य नहीं।”१ हालाँकि साध्य और साधन में शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध नहीं होता, दोनों में परस्पर अन्तरावलंबन होता है यानि रूप और वस्तु में द्वन्द्वात्मक एकता होती है। किसी भी लघुकथा की रचना में मूल वस्तु उसकी वैचारिक अंतर्वस्तु होती है जिसे प्रभावशाली बनाने के लिए हम जिस प्रविधि का उपयोग करते हैं वही रचना कौशल है। इसी बात को लघुकथा के संदर्भ में रचना-विधान के रूप में व्याख्यायित करते हुए निशांतर कहते हैं- “लघुकथा और उसके कथानक के उपर्युक्त अंतर को और स्पष्ट किया जाय तो यह निष्कर्ष निकलता है कि कच्चे माल ‘कथानक” को तैयार माल “लघुकथा” में परिवर्तित करने में जिन रूपात्मक प्रविधियों का उपयोग किया जाता है उसे समग्र रूप से तकनीक या “रचना-विधान” कहा जाता है।”२ इसको दूसरे शब्दों में यों कहा जाय कि- “किसी कलात्मक कृति के प्रस्तुत करने के विशिष्ट ढंग को कौशल कहते हैं अर्थात उस कृति के रूप-निर्माण और ढलन आदि की विशिष्ट योजना को कौशल या ‘तकनीक’ कहते हैं।.........
किसी भी कला-कृति में विशेष सौंदर्य उत्पन्न करने का जो बौद्धिक नियोजन किया जाता है उसी को कौशल कहते हैं; अर्थात वे सब साधन, प्रयोग तथा संयोजन मिलकर कौशल कहलाते हैं।” लघुकथा लेखन में जहाँ प्रगति के असीम द्वार खुलने की संभावनाएँ हैं इसको किसी निश्चित फ्रेम में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। फिर भी इसके लिए प्रयास तो होना ही चाहिए। लघुकथा या किसी भी साहित्य-विधा को श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए जिन कौशलों की जरूरत होती है उनमें कथानक, शिल्प, वैचारिक-पक्ष, शैली, संवेदनीयता और उसका कला-पक्ष प्रमुख हैं। इस सबसे अलग हटकर प्रमुख है -उसका प्रस्तुतिकरण। यह प्रस्तुतिकरण खुद में एक बहुत बड़ा कौशल होता है- जैसे वर्णनात्मक, भावात्मक, कलात्मक, विचारात्मक और चित्रात्मक। कथा की प्रस्तुति के जिन तरीकों का उपयोग किया जाता है उनमें उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और प्रथम पुरुष की शैली का उपयोग किया जाता है। इसके अलावे कथा-प्रस्तुति के और अन्य भेदों में खासकर लघुकथा के लिए संवाद, विवरण, पत्रात्मक शैली या पूर्वदिप्ती का उपयोग करके लघुकथा को अभीष्ट ऊँचाई दी जा सकती है।
लघुकथा को श्रेष्ठ कलात्मक रूप देने में जिन कौशलों का प्रयोग जरूरी है उनमें मेरी दृष्टि में प्रमुख हैं- १.शीर्षक, २.रूप-कौशल, ३.कथा-कौशल, ४.पात्र-योजना, ५.लक्ष्य-कौशल और ६.समाप्ति-कौशल। इन कौशलों को बिना समझे लघुकथा की उत्तम प्रस्तुति नहीं हो सकती।
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