रहिमन वे नर मर चुके; जे कहुँ माँगन जाहि।
उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहि।।1।।
दोनों रहिमन एक से, जो लौं बोलत नाँहि।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माँहि।।2।।
तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।।।
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, सो ही साँचे मीत।।4।।
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहें लोग सब, बाँटि न लैहें कोय।।5।।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।।6।।
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