rajasthan ke jangal janapad ke bare me bataye
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प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाईयाँ सम्मिलित थी जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी। उदाहरण के लिए जयपुर राज्य का उत्तरी भाग मध्यदेश का हिस्सा था तो दक्षिणी भाग सपादलक्षकहलाता था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरुदेश का हिस्सा था तो भरतपुर, धोलपुर, करौली राज्य शूरसेन देश में सम्मिलित थे। मेवाड़ जहाँ शिवि जनपद का हिस्सा था वहाँ डूंगरपुर-बांसवाड़ा वार्गट (वागड़) के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार जैसलमेर राज्य के अधिकांश भाग वल्लदेशमें सम्मिलित थे तो जोधपुर मरुदेश के नाम से जाना जाता था। बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग जांगल देश कहलाता था तो दक्षिणी बाग गुर्जरत्रा (गुजरात) के नाम से पुकारा जाता था। इसी प्रकार प्रतापगढ़, झालावाड़ तथा टोंक का अधिकांश भाग मालवादेश के अधीन था। [1] हर्ष शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि तंत्रपाल नामक प्रतिहारों का दूत जब चौहान नरेश वाक्पति से मिलने आया तो वह अनंतगोचर आया। इतिहासकार अनंतगोचर को हर्ष के आस-पास का क्षेत्र मानते हैं। (रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.37 -38) वर्त्तमान शेखावाटी के क्षेत्र को अनंतगोचर कह सकते हैं।
इतिहासकार रतन लाल मिश्र मानते हैं कि राजस्थान में राजपूतकुलों के शासन के पूर्व इस क्षेत्र में जाट जाति उपस्थित थी जिसका शासन गणराज्य की पंचायत पद्धति पर चलता था। [2] ठाकुर देशराज ने जाट इतिहास में अनेक जाट गणराज्यों का वर्णन किया है। [3] डॉ पेमा राम ने 'राजस्थान के जाटों का इतिहास' पुस्तक में राजस्थान के जाटों के गणराज्य एवं उनका पतन तथा जाट जनपदों की प्रशासनिक व्यवस्था पर विस्तार से प्रकाश डाला है। [4]
बाद में जब राजपूतों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश अथवा स्थान के अनुरुप कर दिया। ये राज्य उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, करौली और झालावाड़ थे। भरतपुर एवं धोलपुर में जाटोंका राज्य रहा तथा टोंक में मुस्लिम राज्य था।[5] [6]
इन राज्यों के नामों के साथ-साथ इनके कुछ भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता है। ढ़ूंढ़ नदी के निकटवर्ती भू-भाग को ढ़ूंढ़ाड़ (जयपुर) कहते हैं। मेव तथा मेद जातियों के नाम से अलवर को मेवात तथा उदयपुर को मेवाड़ कहा जाता है। मरु भाग के अन्तर्गत रेगिस्तानी भाग को मारवाड़ भी कहते हैं। डूंगरपुर तथा उदयपुर के दक्षिणी भाग में प्राचीन ५६ गांवों के समूह को "छप्पन" नाम से जानते हैं। माही नदी के तटीय भू-भाग को कोयल तथा अजमेर के पास वाले कुछ पठारी भाग को ऊपरमाल की संज्ञा दी गई है। [7] [8]
राजस्थान को आजादी से पहले राजपूताना नाम से पुकारा जाता था जो यह भ्रम उत्पन्न करता था कि यह राजपूत बहुल प्रदेश है। हकीकत में ऐसा नहीं है। राजपूताना नाम की बुनियाद अकबर के समय में उनके अच्छे संबंद होने के कारण पड़ी परन्तु प्रचार नहीं हुआ। राजपूताना नाम का प्रचार कर्नल टाड की 'राजस्थान' के लिखे जाने के पश्चात अंग्रेज सरकार के काल में हुआ।
इतिहासकार रतन लाल मिश्र मानते हैं कि राजस्थान में राजपूतकुलों के शासन के पूर्व इस क्षेत्र में जाट जाति उपस्थित थी जिसका शासन गणराज्य की पंचायत पद्धति पर चलता था। [2] ठाकुर देशराज ने जाट इतिहास में अनेक जाट गणराज्यों का वर्णन किया है। [3] डॉ पेमा राम ने 'राजस्थान के जाटों का इतिहास' पुस्तक में राजस्थान के जाटों के गणराज्य एवं उनका पतन तथा जाट जनपदों की प्रशासनिक व्यवस्था पर विस्तार से प्रकाश डाला है। [4]
बाद में जब राजपूतों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश अथवा स्थान के अनुरुप कर दिया। ये राज्य उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, करौली और झालावाड़ थे। भरतपुर एवं धोलपुर में जाटोंका राज्य रहा तथा टोंक में मुस्लिम राज्य था।[5] [6]
इन राज्यों के नामों के साथ-साथ इनके कुछ भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता है। ढ़ूंढ़ नदी के निकटवर्ती भू-भाग को ढ़ूंढ़ाड़ (जयपुर) कहते हैं। मेव तथा मेद जातियों के नाम से अलवर को मेवात तथा उदयपुर को मेवाड़ कहा जाता है। मरु भाग के अन्तर्गत रेगिस्तानी भाग को मारवाड़ भी कहते हैं। डूंगरपुर तथा उदयपुर के दक्षिणी भाग में प्राचीन ५६ गांवों के समूह को "छप्पन" नाम से जानते हैं। माही नदी के तटीय भू-भाग को कोयल तथा अजमेर के पास वाले कुछ पठारी भाग को ऊपरमाल की संज्ञा दी गई है। [7] [8]
राजस्थान को आजादी से पहले राजपूताना नाम से पुकारा जाता था जो यह भ्रम उत्पन्न करता था कि यह राजपूत बहुल प्रदेश है। हकीकत में ऐसा नहीं है। राजपूताना नाम की बुनियाद अकबर के समय में उनके अच्छे संबंद होने के कारण पड़ी परन्तु प्रचार नहीं हुआ। राजपूताना नाम का प्रचार कर्नल टाड की 'राजस्थान' के लिखे जाने के पश्चात अंग्रेज सरकार के काल में हुआ।
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