Hindi, asked by ayushsinha267, 1 year ago

Rajneeti ke girawat per bhai ke saath samvad​

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Answered by Ranveerthakurkumar
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बहुजन समाज पार्टी की नेता और उत्तर प्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री मायावती आज गहरे राजनीतिक संकट से गुजर रही हैं.

मायावती का अपनी जनता से जुड़ाव कमज़ोर हुआ है. इसका सबसे बड़ा कारण है- उनकी भाषा और राजनीति.

मायावती आज भी मात्र जातीय अस्मिता की भाषा से काम चला रही हैं. 'जातीय अस्मिता' की जो भाषा मायावती बोल रही हैं, वह भी पुरानी पड़ चुकी है. जातीय अस्मिता की चाह के स्वरूप में आज काफ़ी परिवर्तन आ गया है.

विकास की चाह, बाज़ारवादी मानसिकता और जनसमूहों के बदलते स्वरूप को देखते हुए उन्हें जातीय अस्मिता की राजनीति की नई भाषा इजाद करने की ज़रूरत है.

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70 सालों में बहुत बदल गए हैं दलित

दलित मायावती के बेस वोटर हैं. उनके विशेष सन्दर्भ में देखें तो आज़ादी के लगभग 70 वर्षो बाद वे एक ही तरह की इकाई नही रह गए हैं. वे चेतना, विकास एवं राजनीतिक भागीदारी के सन्दर्भ में अनेक स्तरों पर विभाजित हैं.

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दलितों में क्रीमीलेयर, मध्य वर्ग एवं निम्न वर्ग और ग़रीब-मजलूमों के अनेक स्तर विकसित हो गए हैं. दलित क्रीमी लेयर एवं दलित मध्य वर्ग की आकांक्षाओं और ग़रीब-मजलूम दलित वर्ग की आकांक्षाओं में साम्य तो है मगर विभिन्नता भी है.

इसलिए अगर मायावती सिर्फ़ दलित समूह से ही जुड़ाव विकसित करना चाहती हैं, तब भी उन्हें अपनी राजनीतिक भाषा में इस अन्तः विरोध का सामना करना होगा.

आज का दलित समूह 30 वर्ष पहले का दलित समूह नही रहा. बाजार, जनतंत्र और विकास की चाह ने उनमें बहुत कुछ बदला है. उनमें अनेक सामाजिक तहों का सृजन हुआ है. ऐसे में मायावती को भी बदलती दलित आकांक्षाओं को समझते हुए नई राजनीतिक भाषा विकसित करनी होगी.

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जनता से सीधा संवाद न रहने से हुआ नुकसान

मायावती की दूसरी समस्या है जनता के साथ उनका सीधा संवाद न होना. मायावती पिछले दिनों लगातार अपनी जनता की 'पहुंच से दूर' होती गई हैं.वह सिर्फ़ पार्टी नेताओं और मंडल कोऑर्डिनेटर्स से ही बात करती रही हैं. ऐसे में जनता के मन में उनके प्रति लगाव कम हुआ है, जिसका परिणाम उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में हमें देखने को मिल चुका है.

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ऐसे में मायावती को अपने संवाद का दायरा बढ़ाना होगा. पार्टी संगठन के लोगों के माध्यम से जनता जुड़ने की जगह उन्हें समाज के विभिन्न वर्गो के ऑपिनियन मेकर्स, बुद्धिजीवी वर्ग और आमजन से सीधा संवाद करना होगा. तब जाकर वह लगातार बदलावों से गुज़र रही जनमानसिकता को समझकर अपनी राजनीतिक भाषा विकसित कर सकती हैं.

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अभी भी कर रही हैं पुरानी शैली की राजनीति

तीसरी अहम बात यह है कि बीएसपी की राजनीति विभिन्न जातियों और धर्मो को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के लिए उनका महागठजोड़ बनाने पर केन्द्रित रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने मुसलमानों को 100 से ज़्यादा टिकट देकर दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कोशिश की थी. यह प्रयोग असफल रहा था.

जातीय अस्मिता एवं धार्मिक अस्मिताओं की राजनीति करने की यह शैली काफ़ी पुरानी पड़ चुकी है, क्योंकि जनतांत्रिक प्रक्रिया से गुज़रने के कारण जातियों और धर्मो में सामुदायिक नेताओं की बड़ी फ़ौज खड़ी हो गई है. यह फ़ौज उन्हें होमजीनियस यानी एक जैसा वोट बैंक नही बनने देती.

बढ़ती राजनीतिक आकांक्षाओं के कारण इन समूहों में अन्तर्विरोध विकसित होते जाते हैं. ऐसे में मायावती को ऐसी रणनीति विकसित करनी होगी जिससे विभिन्न जातीय एवं धार्मिक अस्मिताओं को जोड़ने के लिए एक वृहद भाषा विकसित हो सके.

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सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें अपनी राजनीति को जनआंदोलनों के स्तर तक विकसित करना होगा. यानी जनता को लगना चाहिए कि उनकी हर लड़ाई में मायावती और बीएसपी शामिल हैं.

आज बीएसपी मात्र रैलियों एवं बयानों की राजनीति तक सीमित हो गई है. मायावती ने पिछले दिनों अपनी राजनीति को सड़क तक ले जाने की प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है. देखना है कि किस स्तर तक यह संभव हो पाता है.

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