RAS. KE. AVYAYA. KYA. HOTE. HAI
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Ras k avaay stahyi bhav , sanchari bhav , vibhav aur anubhaav hote h
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रस के अवयव
रस स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से निर्मित या अभिव्यक्त होता है. इन्हीं को रस के चार अंग कहते हैं.
1. स्थायी भाव
'स्थायी भाव' के संबंध में इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि उसका निरूपण रस की दृष्टि से किया गया है. इसलिए 'स्थायी भाव' रस निरूपण में शास्त्रीय श्रेणी है. उसे जीवन का स्थायी भाव नहीं मानना चाहिए. रस सिद्धांत में 'स्थायी भाव' का मतलब 'प्रधान' भाव है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्थायी भाव की परिभाषा इस प्रकार की है:
प्रधान (प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी) भाव वही कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचे.
तात्पर्य यह है कि अनुभाव और संचारी भाव रस दशा तक नहीं पहुँचते हैं. अनुभाव व संचारी किसी-न-किसी भाव को पुष्ट करते हैं और वही भाव पूर्ण रस दशा को प्राप्त करता है. रति, शोक, उत्साह आदि भाव जीवन में प्रधान या मुख्य होते हैं वे ही रस की अवस्था को प्राप्त करते हैं. शास्त्र में संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई है किन्तु स्थायी भाव 8, 9 या 10 ही माने गए हैं. अर्थात् 8, 9 या 10 भाव अपनी प्रधानता के कारण स्थायी भाव माने जाते हैं अपने स्थायित्व (Permanance) के कारण नहीं.
स्थायी भाव की संख्या नौ बताई गई है, किन्तु इनकी संख्या आठ और दस भी मानी जाती है. उनके नाम हैं:
रति, ह्रास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद और वात्सल.
इन्हीं स्थायी भावों का विकास रस रूप में होता है. इसलिए रस की संख्या भी स्थायी भावों की संख्या के अनुसार होती है.
2. विभाव
“विभाव से अभिप्राय उस वस्तुओं और विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है.” अर्थात् भाव के जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते हैं.
विभाव दो प्रकार के होते हैं:
आलंबन और उद्दीपन
क. आलंबन विभाव
भाव जिन वस्तुओं या विषयों पर आलंबित होकर उत्पन्न होते हैं उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं. जैसे नायक-नायिका.
आलंबन के दो भेद हैं: आश्रय और विषय.
आश्रय
जिस व्यक्ति के मन में रति आदि भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय कहते हैं.
विषय
जिस वस्तु या व्यक्ति के लिए आश्रय के मन में भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं.
उदाहरण के लिए यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जागरित होता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय. उसी प्रकार यदि सीता के मन में राम के प्रति रति भाव उत्पन्न हो तो सीता आश्रय और राम विषय होंगे.
ख. उद्दीपन विभाव
आश्रय के मन में भाव को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और वाह्य वातावरण को उद्दीपन विभाव कहते हैं.
जैसे दुष्यंत शिकार खेलता हुआ कण्व के आश्रम में जा निकलता है. वहाँ शकुन्तला को वह देखता है. शकुन्तला को देख कर दुष्यंत के मन में आकर्षण या रति भाव उत्पन्न होता है. उस समय शकुंतला की शारीरिक चेष्टाएँ दुष्यंत के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करती हैं. इस प्रकार शकुंतला की शारीरिक चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जाएगा. वन प्रदेश का एकान्त वातावरण आदि दुष्यंत के रति भाव को और अधिक तीव्र करने में सहायक होगा. अत: उद्दीपन विभाव विषय की शारीरिक चेष्टा और अनुकूल वातावरण को कहते हैं.
3. अनुभाव
जहाँ विषय की बाहरी चेष्टाओं को उद्दीपन कहा जाता है वहाँ आश्रय के शरीर विकारों को अनुभाव कहते हैं. यानी अनुभाव हमेशा आश्रय से संबंधित होते हैं. अनुभावों को भी रस सिद्धांत में निश्चित कर दिया गया है. स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, विवर्णता, अश्रु और प्रलाप. ये आठ अनुभाव माने जाते हैं.
जैसे शकुंतला के प्रति रतिभाव के कारण दुष्यंत के शरीर में रोमांच, कम्प आदि चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं तो उन्हें अनुभाव कहा जाएगा.
4. संचारी भाव
मन के चंचल विकारों को संचारी भाव कहते हैं. संचारी भाव भी आश्रय के मन में उत्पन्न होते हैं. संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है. इसका पहला कारण यह है कि एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है. दूसरा कारण यह है कि वह पानी के बुलबुले की तरह उठता और शांत होता रहता है. इसके विपरीत स्थायी भाव आदि से अंत तक बना रहता है और एक रस का एक ही स्थायी भाव होता है.
उदाहरण के लिए शकुंतला के प्रति रतिभाव के कारण शकुंतला को देख कर दुष्यंत के मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न होंगे उन्हें संचारी भाव कहेंगे.
रस स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से निर्मित या अभिव्यक्त होता है. इन्हीं को रस के चार अंग कहते हैं.
1. स्थायी भाव
'स्थायी भाव' के संबंध में इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि उसका निरूपण रस की दृष्टि से किया गया है. इसलिए 'स्थायी भाव' रस निरूपण में शास्त्रीय श्रेणी है. उसे जीवन का स्थायी भाव नहीं मानना चाहिए. रस सिद्धांत में 'स्थायी भाव' का मतलब 'प्रधान' भाव है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्थायी भाव की परिभाषा इस प्रकार की है:
प्रधान (प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी) भाव वही कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचे.
तात्पर्य यह है कि अनुभाव और संचारी भाव रस दशा तक नहीं पहुँचते हैं. अनुभाव व संचारी किसी-न-किसी भाव को पुष्ट करते हैं और वही भाव पूर्ण रस दशा को प्राप्त करता है. रति, शोक, उत्साह आदि भाव जीवन में प्रधान या मुख्य होते हैं वे ही रस की अवस्था को प्राप्त करते हैं. शास्त्र में संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई है किन्तु स्थायी भाव 8, 9 या 10 ही माने गए हैं. अर्थात् 8, 9 या 10 भाव अपनी प्रधानता के कारण स्थायी भाव माने जाते हैं अपने स्थायित्व (Permanance) के कारण नहीं.
स्थायी भाव की संख्या नौ बताई गई है, किन्तु इनकी संख्या आठ और दस भी मानी जाती है. उनके नाम हैं:
रति, ह्रास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद और वात्सल.
इन्हीं स्थायी भावों का विकास रस रूप में होता है. इसलिए रस की संख्या भी स्थायी भावों की संख्या के अनुसार होती है.
2. विभाव
“विभाव से अभिप्राय उस वस्तुओं और विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है.” अर्थात् भाव के जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते हैं.
विभाव दो प्रकार के होते हैं:
आलंबन और उद्दीपन
क. आलंबन विभाव
भाव जिन वस्तुओं या विषयों पर आलंबित होकर उत्पन्न होते हैं उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं. जैसे नायक-नायिका.
आलंबन के दो भेद हैं: आश्रय और विषय.
आश्रय
जिस व्यक्ति के मन में रति आदि भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय कहते हैं.
विषय
जिस वस्तु या व्यक्ति के लिए आश्रय के मन में भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं.
उदाहरण के लिए यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जागरित होता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय. उसी प्रकार यदि सीता के मन में राम के प्रति रति भाव उत्पन्न हो तो सीता आश्रय और राम विषय होंगे.
ख. उद्दीपन विभाव
आश्रय के मन में भाव को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और वाह्य वातावरण को उद्दीपन विभाव कहते हैं.
जैसे दुष्यंत शिकार खेलता हुआ कण्व के आश्रम में जा निकलता है. वहाँ शकुन्तला को वह देखता है. शकुन्तला को देख कर दुष्यंत के मन में आकर्षण या रति भाव उत्पन्न होता है. उस समय शकुंतला की शारीरिक चेष्टाएँ दुष्यंत के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करती हैं. इस प्रकार शकुंतला की शारीरिक चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जाएगा. वन प्रदेश का एकान्त वातावरण आदि दुष्यंत के रति भाव को और अधिक तीव्र करने में सहायक होगा. अत: उद्दीपन विभाव विषय की शारीरिक चेष्टा और अनुकूल वातावरण को कहते हैं.
3. अनुभाव
जहाँ विषय की बाहरी चेष्टाओं को उद्दीपन कहा जाता है वहाँ आश्रय के शरीर विकारों को अनुभाव कहते हैं. यानी अनुभाव हमेशा आश्रय से संबंधित होते हैं. अनुभावों को भी रस सिद्धांत में निश्चित कर दिया गया है. स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, विवर्णता, अश्रु और प्रलाप. ये आठ अनुभाव माने जाते हैं.
जैसे शकुंतला के प्रति रतिभाव के कारण दुष्यंत के शरीर में रोमांच, कम्प आदि चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं तो उन्हें अनुभाव कहा जाएगा.
4. संचारी भाव
मन के चंचल विकारों को संचारी भाव कहते हैं. संचारी भाव भी आश्रय के मन में उत्पन्न होते हैं. संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है. इसका पहला कारण यह है कि एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है. दूसरा कारण यह है कि वह पानी के बुलबुले की तरह उठता और शांत होता रहता है. इसके विपरीत स्थायी भाव आदि से अंत तक बना रहता है और एक रस का एक ही स्थायी भाव होता है.
उदाहरण के लिए शकुंतला के प्रति रतिभाव के कारण शकुंतला को देख कर दुष्यंत के मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न होंगे उन्हें संचारी भाव कहेंगे.
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