रस की परिभाषा देते हुए उसके अंगों के नाम लिखिए।
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काव्य को पढने से जिस आनंद की अनुभूति होती है अर्थात जिस अनिवर्चनीय भाव का संचार ह्रदय में होता है, उसी आनंद को रस कहा जाता है | रस का विवेचन सर्वप्रथम भरत मुनि ने अपने ग्रन्थ नाट्य शास्त्र में किया था |
परिभाषा – काव्य को पढने से जिस आनंद की अनुभूति होती है अर्थात जिस अनिवर्चनीय भाव का संचार ह्रदय में होता है, उसी आनंद को रस कहा जाता है | रस का विवेचन सर्वप्रथम भरत मुनि ने अपने ग्रन्थ नाट्य शास्त्र में किया था |
भरत मुनि के अनुसार रसों की संख्या 8 है परन्तु अभिनव गुप्त ने 9 रसों को मान्यता दी है | अतः अब रसों की संख्या 9 मानी जाती है, शृंगार रस में ही वात्सल्य और भक्ति रस भी शामिल हैं |
रस एवं उनके स्थायी भाव
शृंगार – रति
करुण – शोक
हास्य – हास
वीर – उत्साह
भयानव – भय
रौद्र – क्रोध
अद्भुत – आश्चर्य , विस्मय
शांत – निर्वेद या निर्वृती
वीभत्स – जुगुप्सा
वात्सल्य – रति
भक्ति रस – अनुराग
रस के अंग
रस के 4 अंग माने गये हैं , स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव
1.स्थायी भाव – स्थायी भाव का अर्थ होता है प्रधान भाव, स्थायी भाव ही रस का आधार है | एक रस के मूल में एक रस विद्यमान रहता है |
2.विभाव – जो पदार्थ, व्यक्ति परिस्थिति व्यक्ति के ह्रदय में भावोद्रेक उत्पन्न करता है, वह विभाव कहलाता है | विभाव दो प्रकार के होते हैं – उद्दीपन विभाव और आलंबन विभाव
3अनुभाव – मनोभावों को व्यक्त करने वाले शारीरिक विकार अनुभाव कहलाते हैं, ये भाव सात्विक, मानसिक और कायिक होते हैं |
संचारी भाव/ व्याभिचारी
4.भाव – मन में संचरण करने वाले भाव संचारी भाव कहलाते हैं, ये भाव पानी के बुलबुलों के सामान उठते और विलीन हो जाने वाले भाव होते हैं |
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Warm regards:Miss chikchiki