रस की वेद की विवेचना
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रस वह गुणवत्ता है जो कलाकार और दसकार के बीच समझ उत्पन्न करती है। सबदिका स्तर पर रस का मतलब वह है जो चखा जा सके या जिसका आनंद लिया जा सके। नाट्य शास्त्र के छठे पाठ में, लेखक भरत ने संस्कृत में लिखा है " विभावानूभावा व्याभिचारी स़ैयोगीचारी निशपाथिहि" अर्थात विभाव, अनुभव और व्याभिचारी के मिलन से रस का जन्म होता है। जिस प्रकार लोग स्वादिष्ट खाना, जो कि मसाले, चावल और अन्य चीज़ो का बना हो, जिस रस का अनुभव करते है और खुश होते है उसी प्रकार स्थायी भाव और अन्य भावों का अनुभव करके वे लोग हर्ष और संतोष से भर जाते है।
इस भाव को तब 'नाट्य रस' काहा जाता है। कुछ लोगो की राय है कि रस और भाव की उठता उनके मिलन के साथ होती है। लेकिन यह बात सही नहीं है, क्योंकि रसो का जन्म भावो से होता है परंतु भावो का जन्म रसो से नहीं होता है। इसी कारण के लिये भावो को रसो का मूल माना जाता है। जिस प्रकार मसाले, सब्जी और गुड के साथ स्वाद या रस बनाया जा सके उसी प्रकार स्थाई भाव और अन्य भावों से रस बनाया जा सकता है और ऐसा कोई स्थाईभाव नहीं है जो रस की वृद्धि नहीं करता और इसी प्रकार स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और व्याभिचारी भावों से रस की वृद्धि होती है।
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