रत्न प्रसविनी हैं वसुधा, अब समझ सका है।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं।
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं।
इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं।
जिसमें उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की -जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ।
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे। sandrbh prasang vyakhya
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रत्न प्रसविनी हैं वसुधा, अब समझ सका है।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं।
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं।
इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं।
जिसमें उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की -जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ।
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
संदर्भ एवं प्रसंग ⦂ प्रस्तुत पंक्तियां कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित “धरती कितना देती है” नामक कविता से ली गई हैं। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने धरती की व्यथा को व्यक्त किया है, जो मानव को स्वार्थी न बनकर निस्वार्थी बनने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या ⦂ कवि पंत कहते हैं कि इस धरती में हमें सच्ची मानवता, प्रेम और दया के बीज बोने हैं। हमें इस धरती में मानव रूपी शक्ति के बीजे बोने ताकि उससे जो सुनहरी प्रेम और भाईचारे की फसल उत्पन्न होकर लहराये उसे सब लोगों में बांटकर खुशियां ला सके। कवि कहते हैं, कि हम जो बोते हैं वही काटते हैं। यदि हम प्रेम और ममता के बीज बोयेंगे को प्रेम और ममता की फसल ही काटेंगे।
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