Reading comprehension
i.
निम्न लिखित अपठित गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए |
शरीर को स्वस्य या निरोग रखने में व्यायाम का विशेष महत्व है। आज की भाग-दौड़ से भरी जिंदगी में
मनुष्य को इतना व्यस्तकर दिया है कि वह यह भी भूलगया है कि इस सारी भाग-दौड़ का वह तभी तक
हिस्सेदार हैं जब तक कि उसका शरीर भी स्वस्थ है। जो व्यक्ति अपने शरीर की देख भाल नहीं करता है वह
अपने लिए रोग, बुढ़ापात था मृत्यु का दरवाजा खोलता है वैसे तो अच्छे स्वास्थ्य के लिए संतुलित भोजन,
स्वच्छ जल, शुद्धवायुत था नियमित व्यायाम आवश्यक है कि तु इन सब में व्यायाम करने वाले व्यक्ति में
कुछ ऐसी अमुत शक्ति आजाली है कि उनके सारे शरीर पर उसका अधिकार हो जाता है।
1.
व्यायाम का क्या महत्व है?
2.
आज व्यक्ति क्या भूल गया है?
3.
शरीर की देखभाल ना करने वाले व्यक्तियों काक्या-क्या नुकसान होता है?
अच्छे स्वास्थ्य के लिये क्या-क्या आवश्यक है?
5.
व्यक्ति में
शक्तियों का विकास किस्से होता है?
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Answers
Answer:
1 . लगातार और नियमित शारीरिक व्यायाम, प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ा देता है और यह हमारी नींद कम करता है इससे हमें सुबह उठने पर तकलीफ नहीं होतीहृदय रोग, रक्तवाहिका रोग, टाइप 2 मधुमेह और मोटापा जैसे समृद्धि के रोगों को रोकने में मदद करता है। यह मानसिक स्वास्थ्य को सुधारता है और तनाव को रोकने में मदद करता है।
2 . आज व्यक्ति यह भूल गया है कि वह भाग-दौड़ तभी कर सकता है जब तक वह शारीरिक रूप से स्वस्थ है।
Explanation:
मानव बड़ा है अथवा समाज ? यह प्रश्न प्राचीन काल से ही विद्वानों के समक्ष विचारणीय रहा है। कुछ विद्वान् समाज की अपेक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व पर बल देते हैं, को कुछ समाज के हित के समक्ष व्यक्ति को बिलकुल महत्वहीन मानते हुए उसे समाज की उन्नति के लिए बलिदान तक कर देने के पक्ष में हैं। इस वाद-विवाद के आधार पर की शिक्षा के व्यैक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों का सर्जन हुआ है। शिक्षा सम्बन्धी सभी उदेश्य प्राय: इन्ही दोनों उद्देश्यों में से किसी एक उदेश्य के पक्ष में बल देते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा के इन दोनों उद्देशों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है अथवा नहीं ? यदि अन्तर केवल बल देने का ही तो इन दोनों उद्देश्यों के बीच समन्वय स्थापित करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। परन्तु इसके लिए हमें निष्पक्ष रूप से इन दोनों उद्देश्यों के संकुचित तथा व्यापक रूपों का अलग-अलग अध्ययन करके यह देखन होगा कि इन दोनों उद्देश्यों में कोई वास्तविकता विरोध है अथवा केवल बल देने का अन्तर है। निम्नलिखित पक्तियों में हम शिक्षा के इन दोनों उद्देश्यों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाल रहे हैं।
व्यैक्तिक उदेश्य का अर्थ
शिक्षा का व्यैक्तिक उद्देश्य एक प्राचीन उद्देश्य है। इस उद्देश्य के सार्थक समाज की अपेक्षा व्यक्ति को बड़ा मानते हैं। उसका विश्वास है कि व्यक्तियों के बिना समाज कोरी कल्पना है। व्यक्तियों ने ही मिलकर अपने हितों की रक्षा करने के लिए समाज की रचना की है तथा समय-समय पर संस्कृति, सभ्यता एवं विज्ञान के क्षेत्रों में भी अपना-अपना योगदान दिया है। इस योगदान के फलस्वरूप ही सामाजिक प्रगति का क्षेत्र बड़ा और बढ़ता चला जा रहा है। दुसरे शब्दों में , व्यक्ति के विकास से ही समाज का विकास हुआ तथा दिन-प्रतिदिन हो रहा है। अत: शिक्षा को व्यक्तिगत रुचियों, क्षमताओं तथा विशेषताओं का विकास करना चाहिये। इसीलिए कुछ शिक्षा-शास्त्रियों ने शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य का समर्थन किए है।
यदि ध्यान से देखा जाये तो पता चलेगा कि शिक्षा का व्यैक्तिक उद्देश्य नया उद्देश्य नहीं है। प्राचीनकाल में ग्रीस, भारत तथा अन्य पाश्चात्य देशों में भी शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य को प्रमुख स्थान दिया जाता था। मध्यकाल में अवश्य सामूहिक शिक्षा के ढंग को अपनाया गया जिसके कारण व्यक्तितत्व के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इस उद्देश्य को पूरी तरह समझने के लिए इसके संकुचित तथा व्यापक अर्थों का समझना आवश्यक है।
व्यैक्तिक उद्देश्य
व्यैक्तिक उद्देश्य का संकुचित अर्थ – संकुचित अर्थ में शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य को आत्माभिव्यक्ति बालक की शक्तियों का सर्वांगीण विकास तथा प्राकृतिक विकास आदि नामों से पुकारा जाता है। इस अर्थ में यह उद्देश्य प्रकृतिवादी दर्शन पर आधारित है। इसके प्रतिपादकों का अटल विश्वास है कि समाज की अपेक्षा व्यक्ति बड़ा है। अत: उनकी धारणा है कि परिवार, समाज, राज्य तथा स्कूलों को बालक की व्यक्तिगत शक्तियों को विकसित करने के लिए ही स्थापित किया गया है। इस दृष्टि से प्रत्येक राज्य तथा सामाजिक संस्था का कर्त्तव्य है कि वह व्यक्ति के जीवन को अधिक से अधिक अच्छा, सम्पन्न तथा सुखी एवं पूर्ण बनाये।