ᴡʀɪᴛᴇ ᴀ ᴄᴏᴍᴘᴏsɪᴛɪᴏɴ ᴏɴ ᴘᴀʀᴠᴀᴛɪʏᴀ Sᴛʜᴀʟ ᴋɪ ʏᴀᴛʀᴀ.
[ HINDI ]
Aɴsᴡᴇʀ ɪɴ 10 ᴘᴏɪɴᴛs ᴘʟᴢ .
ᴛʜᴇ ʀɪɢʜᴛ ᴀɴsᴡᴇʀ ᴡɪʟʟ ʙᴇ ʟɪᴋᴇᴅ ᴀɴᴅ ᴍᴀʀᴋᴇᴅ ʙʀᴀɪɴʟɪsᴛ
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पर्वतीय स्थल की यात्रा
Parvatiya Sthal ki Yatra
बचपन से ही मेरा ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते रहे हैं। दूर से किसी रूखे-सूखे टीले को देख, उसे पहाड समझ, मेरा जी करता रहा है कि भाग के उस पर चढ़ जाऊँ। इस कारण पिछले वर्ष जब मुझे पर्वतीय स्थान की यात्रा का अवसर मिल तो मैं उसका नाम सुन कर ही फड़क उठा। सोचा, बचपन से पर्वतों पर चढने की जो कल्पना करता आ रहा था, अब उसे पूरा कर पाने का अवसर मिलेगा। सचमुच, बडा ही आनन्द आ जाएगा।
आखिर निश्चित दिन हमारी यात्रा आरम्भ हुई। दिल्ली से देहरादून तक तो हमने रेल में यात्रा की। यहाँ तक की यात्रा में कोई खास रोमांच नहीं था। हाँ, देहरादन की सीमा में प्रवेश करने पर ऊँचे-नीचे रास्तों, कहीं-कहीं पर्वत लगने वाले पठारों, खाइयों सफेदे (यूक्लिप्टिस) और देवदार के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों ने ध्यान अवश्य आकर्षित किया। वातावरण और भावों के रोमानी हो जाने की एक प्रकार से भूमिका भी बँधने लगी। लेकिन असली पर्वतीय यात्रा तो देहरादून से आगे आरम्भ हुई कि जो हमें बस द्वारा पूरी करनी पड़ी। निश्चित समय पर यात्रा आरम्भ हुई। पूछने पर पता चला कि यदि पगडण्डियों के रास्ते चढ़ाई चढ़ पाने की शक्ति हो, तो देहरादून से मंसूरी पाँच-सात किलोमीटर से अधिक नहीं। स्थानीय लोग अभ्यस्त होने के कारण प्रायः आते-जाते रहते हैं। लेकिन बस-मार्ग से जाने पर रास्ता पच्चीस-तीस किलोमीटर से कम नहीं पड़ता। हमें तो बस-मार्ग से ही जाना था, सो बस चल पड़ी।
नगर से बाहर निकलकर बस ने जैसे ही अपना पहाड़ी रास्ता पकडा, मैं फटी-फटी आँखों से खिड़की के रास्ते चारों ओर बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य देखने-बल्कि पीने लगा। बस जैसे कुम्हार के चरक पर चढ़ी ऊपर ही ऊपर उठ रहे रास्ते पर बड़ी सावधानी से घूमती या चढ़ती जा रही थी। अभी जहाँ था, घूम कर फिर उसी स्थान पर आ जाती, पर पहले से काफ़ी ऊँची। यह मेरे लिए एकदम नया और पहला अनुभव था। कहीं-कहीं सिर पर लकड़ियाँ या कुछ और लादे गीत गाती जातीं गरीब घरों की पहाड़ी औरतें भी पैदल चलती दिखाई दे जातीं। उनकी सुन्दरता जहाँ वातावरण को चार-चाँद लगाने वाली थी, गरीबी लज्जा से मस्तक झुका देने वाली थी। पहाड़ी घाटियाँ, उनमें उगे वृक्ष, झाड़ियाँ, पौधे, वनस्पतियाँ और ऊपर आकाश पर बार-बार उमड़-घुमड़ आने वाले बादल सभी कुछ बड़ा ही सुन्दर एवं मन को मोह लेने वाला था।
जब तक बस मसूरी के बस-स्टॉप पर पहुँची, वहाँ शाम ढलने लगी थी। बस के रुकते ही बड़े ही फटे हाल सामान ढोने वालों और होटलों के एजेण्टस ने हमें घेर लिया। होटल के एजेण्टस का बनावटी सभ्यता का प्रदर्शन करने वाला व्यवहार जहाँ हमें खल रहा था, गरीब और लाचार कुलियों का व्यवहार मन द्रवित कर करुणा से भर रहा था। कुली हमें यह आश्वासन दे रहे थे कि वे हमारा सामान उठा कर तो ले ही जाएँगे, हमें ठीक-ठाक जगह भी पहुँचा देंगे, जहाँ रहने-खाने का सस्ता और उचित प्रबन्ध होगा। मैंने पिता जी से कह कर एजेण्टों की बजाए कुलियों की बात मानना ही उचित समझा। सचमुच कुलियों सामान उठा कर हमे ऐसे होटल में पहुंचा दिया, जो मुख्य रास्ते (माल रोटी हट कर अवश्य था; पर सस्ता और अच्छा था। अभी हम कमरे में जाकर टिके कि मैंने खिड़की से बाहर देखा। घाटी में धुआँ-सा भरता जा रहा था और लगता कि वह हमारे कमरे की तरफ ही बढ़ा आ रहा है। कुछ देर में सचमुच चारों तरफ घुप अन्धेरा हो गया और मुझे लगा कि वह धुआँ खिड़की के रास्ते भीतर भी घुस आया मोमो चकित देख पिता जी ने बताया कि ये बादल हैं। पहाड़ों में ऐसे ही धुएँ के से बादल उमडा करते हैं। लगता है, जैसे हमारे घरों में घुसते आ रहे हैं। कुछ ही क्षण बाद रिमझिम-रिमझिम वर्षा आरम्भ हो गई और कोई आधे घण्टे बाद सारा वातावरण पहले का सा साफ हो गया। हाँ, लगता था कि आस-पास के वृक्ष-पर्वत आदि जैसे ताजे-ताजे नहा कर आए हैं।
वहाँ जितने दिन रहे, प्रतिदिन ऐसा ही दृश्य देखने को मिला। उस दिन आराम कर अगले दिन से हमने वहाँ के दर्शनीय स्थान देखना आरम्भ कर दिया। कैम्बल हाइट, धोबी घाट, तिब्बती पार्क, नेहरू पार्क आदि देखने के बाद अगली सुबह हमने काम्पटी कॉल देखने जाने का निश्चय किया। क्यों कि कुछ लोग वहाँ भी पगडण्डियों की नीची उतराई उतर-चढकर जाने में विशेष आनन्द की बात कर रहे थे। इस कारण मैं उसी रास्ते से जाना चाहता था; पर अन्य कोई परिचित साथ न होने के कारण परिवार जनों के साथ बस मार्ग से ही जाना पड़ा। वहाँ का तो जैसे दृश्य ही निराला था। चारों तरफ हरी-भरी पहाड़ियाँ, उन के बीच खुली गहरी घाटी में पत्थरों का सीना चीरकर नीचे प्रकृति द्वारा बनाए गए हौज में गिरती पानी की स्वच्छ धारा, देखकर तो लगा ही कि जैसे किसी देव लोक या शिव लोक में पहुँच गए हैं, नहा कर और भी आनन्द आया। सभी लोग बड़े ही मुग्ध भाव से वह मनोहारी दृश्य देख रहे थे।
हम लोग कोई दस दिन वहाँ रहे। हर दिन किसी-न-किसी नए स्थान को देखने जाते रहे। हर दर्शनीय स्थान पर एक बात बड़ी अखरी। वह यह कि हर जगह को लोगों ने प्रायः कूड़े दान-सा बना डाला था। इस बात को उचित नहीं कहा जा सकता। कम-से-कम ऐसे स्थानों को, तो हमें प्रदूषण-रहित बने देना रहना चाहिए। इस पर्वतीय यात्रा के बारे में जब आज याद कर सोचता हूँ तो एक प्रकार का रोमांच तो हो ही आता है, तीन बातें या दृश्य भी याद आकर रोमांचित कर जाते हैं। पहला तो वहाँ के मूल निवासी लोगों की गरीबी और दयनीय दशा, उस पर मैदानों से गए हम लोगों का उनके साथ पशुओं जैसा व्यवहार । दूसरा कैम्बल हाइट का दृश्य और तीसरा काँम्पटी फॉल का देवलोक जैसा रोमानी वातावरण। जी चाहता है, उड़कर फिर से वहाँ जा पहुँचूँ और खिड़की से भीतर घुस आए बादलों को बाहों में भर लूँ।
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