Hindi, asked by aarjooyadav31, 8 months ago

संघर्ष का आनंद anuchchhed likhiye​

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Answered by Aadi15538
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Answer:

जहां संघर्ष नहीं, वहां जीवन का आनंद नहीं। रोजमर्रा की सुविधाओं में हम इतने लिप्त हैं कि हल्का-सा अभाव हमारे संघर्ष की प्रक्रिया को जटिल बना देता है। इसका प्रभाव दो तरह से पड़ता है- सकारात्मक और नकारात्मक। यदि संघर्ष हमें उदार ,विनम्र और परिश्रमी बनाता है, तो इसे सकारात्मक प्रभाव कहा जाएगा। कहा भी गया है कि दुख में पूरी दुनिया अपनी लगती है। इसके विपरीत यदि संघर्ष हमें तोड़ देता है, तो हम गुस्सैल और कमजोर हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, विपरीत स्थितियों को अनुकूल करने का प्रयत्न करना ही संघर्ष है। लेकिन इसके साथ विश्वास का होना अति आवश्यक है। विश्वास संघर्ष की थकान को महसूस नहीं होने देता।

उस कहानी को याद कीजिए, जब एक गांव में भीषण सूखा पड़ा था। बड़े कष्टकर दिन थे। लोगों ने एक स्थान पर सामूहिक प्रार्थना का आयोजन किया। सभी खाली हाथ आए, केवल एक बच्चा छाता लेकर आया। उसे विश्वास था कि उसकी प्रार्थना सुनी जाएगी और उसके कष्ट के दिन बीत जाएंगे। इसलिए ऐसे दौर में अपनी मेहनत पर आस्था रखनी चाहिए।

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Answered by Ayushi1608
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Answer:

जहां संघर्ष नहीं, वहां जीवन का आनंद नहीं। रोजमर्रा की सुविधाओं में हम इतने लिप्त हैं कि हल्का-सा अभाव हमारे संघर्ष की प्रक्रिया को जटिल बना देता है। इसका प्रभाव दो तरह से पड़ता है- सकारात्मक और नकारात्मक। यदि संघर्ष हमें उदार ,विनम्र और परिश्रमी बनाता है, तो इसे सकारात्मक प्रभाव कहा जाएगा। कहा भी गया है कि दुख में पूरी दुनिया अपनी लगती है। इसके विपरीत यदि संघर्ष हमें तोड़ देता है, तो हम गुस्सैल और कमजोर हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, विपरीत स्थितियों को अनुकूल करने का प्रयत्न करना ही संघर्ष है। लेकिन इसके साथ विश्वास का होना अति आवश्यक है। विश्वास संघर्ष की थकान को महसूस नहीं होने देता।

उस कहानी को याद कीजिए, जब एक गांव में भीषण सूखा पड़ा था। बड़े कष्टकर दिन थे। लोगों ने एक स्थान पर सामूहिक प्रार्थना का आयोजन किया। सभी खाली हाथ आए, केवल एक बच्चा छाता लेकर आया। उसे विश्वास था कि उसकी प्रार्थना सुनी जाएगी और उसके कष्ट के दिन बीत जाएंगे। इसलिए ऐसे दौर में अपनी मेहनत पर आस्था रखनी चाहिए।

संघर्षमय जीवन अपने में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जैसे आंच में तपकर सोना कुंदन बनता है, वैसे मनुष्य भी संघर्ष की आंच में तपकर मनुष्य बनता है। उसमें उन जीवनोपयोगी गुणों का विकास होता है, जो उसे परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाते हैं। ऐसा व्यक्ति निर्भीक, स्पष्टवादी और सुविचारक होता है तथा बाद के जीवन में दुख बड़ी आसानी से झेल पाता है। संघर्ष चाहे स्वयं के लिए किया गया हो या दूसरों के उत्थान के लिए, यह अंतत: हमारे स्वास्थ्य और समृद्धि में सहायक होता है। चुनौती को स्वीकार किए बिना जीतना असंभव है। इसलिए संघर्ष दुख नहीं, दुख से बाहर आने का प्रयास है, यानी सुख और आनंद पाना। तो क्यों न संघर्ष को आनंद का उद्गम कहा जाए?

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