'सुजान अनीति करौ'- से कवि का क्या तात्पर्य है?
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pata nahi bhai behan ya tum jo bhi jo ho.... poora question likho samajh me bhi aaye.... pata nahi
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यद्यपि आत्मा नित्य है ऐसे जाननेवाले ज्ञानीको आत्मविनाशनिमित्तक मोह होना तो सम्भव नहीं तथापि शीतउष्ण और सुखदुःखप्राप्तिजनित लौकिक मोह तथा सुखवियोगजनित और दुःखसंयोगजनित शोक भी होता हुआ देखा जाता है ऐसे अर्जुनके वचनोंकी आशंका करके भगवान् कहते हैं
मात्रा अर्थात् शब्दादि विषयोंको जिनसे जाना जाय ऐसी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषयोंके साथ उनके संयोग वे सब शीतउष्ण और सुखदुःख देने वाले हैं अर्थात् शीतउष्ण और सुखदुःख देते हैं।
अथवा जिनका स्पर्श किया जाता है वे स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषय ( इस व्युत्पत्तिके अनुसार यह अर्थ होगा कि ) मात्रा और स्पर्श यानी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और शब्दादि विषय ( ये सब ) शीतउष्ण और सुखदुःख देनेवाले हैं।
शीत कभी सुखरूप होता है कभी दुःखरूप इसी तरह उष्ण भी अनिश्चितरूप है परंतु सुख और दुःख निश्चितरूप हैं क्योंकि उनमें व्यभिचार ( फेरफार ) नहीं होता। इसलिये सुखदुःखसे अलग शीत और उष्णका ग्रहण किया गया है।
जिससे कि वे मात्रास्पर्शादि ( इन्द्रियाँ उनके विषय और उनके संयोग ) उत्पत्तिविनाशशील हैं इससे अनित्य हैं अतः उन शीतोष्णादिको तू सहन कर अर्थात् उनमें हर्ष और विषाद मत कर।
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