सुमित्रानंदन पंत काव्यगत विशेषताएं निम्न बिंदुओं के आधार पर दो रचनाएं भाव पक्ष कला पक्ष साहित्य में स्थान
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Explanation:
काव्यगत विशेषताएँ
पन्तजी की रचनाओं की भावपक्षीय एवं कलापक्षीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(अ) भावपक्षीय विशेषताएँ
(1) सौन्दर्यानुभूति का कोमल एवं उदात्त रूप पन्तजी सौन्दर्य के उपासक थे उनकी सौन्दर्यानुभूति के तीन मुख्य केन्द्र रहे हैं-प्रकृति, नारी तथा कला सौन्दर्य। उनके काव्य-जीवन का प्रारम्भ ही प्रकृति चित्रण से हुआ है। 'वीणा, 'ग्रन्थि, 'पल्लव आदि उनकी प्रारम्भिक कृतियों में प्रकृति का कोमल रूप परिलक्षित हुआ है। उनका सौन्दर्य-प्रेमी मन प्रकृति को देखकर विभोर हो उठता है। 'वीणा' में कवि स्वयं को एक बालिका के रूप में अत्यधिक सहजता एवं कोमलता से चित्रित करता है। ऐसा वर्णन हिन्दी साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है।
आगे चलकर 'गुंजन' आदि काव्य-रचनाओं में कविवर पन्त का प्रकृति-प्रेम मांसल बन जाता है और नारी सौन्दर्य का चित्रण करने लगता है। वस्तुतः 'पल्लव और 'गुंजन' में प्रकृति और नारी मिलकर एक हो गए हैं। और युवा कवि प्रकृति में ही नारी-सौन्दर्य का दर्शन करने लगता है, लेकिन प्रकृति के इस नारी-चित्रण में कवि सदैव एवं सर्वत्र पावनता ही देखना चाहता है।
(2) कल्पना के विविध रूप- कवि पन्त व्यक्तिवादी कलाकार के समान अन्तर्मुखी बनकर अपनी कल्पना को असीम गगन में खुलकर विचरण करने के लिए मुक्त करते हैं-
मधुरिमा के मधुमास,
मेरा मधुकर का-सा जीवन,
कठिन कर्म है, कोमल मन,
विपुल मृदुल सुमनों से विकसित,
विकसित है विस्तृत जग-जीवन।
(3) रस-चित्रण- कविवर पन्तरजी का प्रिय रस श्रृंगार है; परन्तु उनके काव्य में शान्त, अद्भुत, करुण, रौद्र आदि रसों का भी सुन्दर परिपाक हुआ है। संयोग श्रृंगार की छष्टा दर्शनीय है-
इन्दु पर, उस इन्दु मुख पर साथ ही
थे पड़े मेरे नयन, जो उदय से,
लाज से रक्तिम हुए थे, पूर्व को,
पूर्व था, पर वह द्वितीय अपूर्व था।
(ब) कलापक्षीय विशेषताएँ
पन्त के काव्य की कलापक्षीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) चित्रात्मक भाषा- कविवर पन्त कविता की भाषा के लिए दो गुणों को आवश्यक मानते हैं- चित्रात्मकता और संगीतात्मकता। इसके लिए उन्होंने कविता की भाषा और भावों में पूर्ण सामंजस्य पर बल दिया है
बाँसों का झुरमुट
सन्च्या का झुटपुट,
है चहक रही चिड़िया,
टी-वी-टी टुट्-दु।
चित्रात्मकता तो पन्त की कविता का प्राण ही है। उनकी प्रकृति सम्बन्धी कविताओं में इस कला का चरमोत्कर्ष दिखाई पड़ता है। 'नौका-विहार का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
नौका से उठती जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर!
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक
दल
ज्योतित कर नभ का अंतस्तल;
जिनके अविरल लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किए
फिरती लहरें लुक-छिप पल-पल!
छायावाद ने अभिव्यक्ति की नई शैली को अपनाया इस नई शैली के कारण अलंकारों में भी नवीनता आईं। पन्त के काव्य में भी कितने ही नवीन अलंकारों के दर्शन होते हैं। मानवीकरण का एक उदाहरण द्रष्टव है-
(2) नवीन अलंकार-योजना-
कहो तुम रूपसि कौन?
व्योम से उतर रहीं चुपचाप,
छिपी निज छाया में छवि आप,
सुनहरी फैला केश-कलाप।
पन्त की-सी उपमाएँ अन्य कवियों की रचनाओं में बहुत कम मिलती हैं। वह एक के बाद दूसरी सुन्दर उपमाओं की लड़ी-सी बाँधते चलते हैं। वे कहा सूक्ष्म की स्थूल से तथा कहीं स्थूल की सूक्ष्म से उपमा देने में अत्यन्त निपुण हैं।
(3) छन्द-विधान- पन्तजी का मत है कि मुक्तक छन्दों की अपेक्षा तुकान्त छन्दों के आधार पर हो काव्य संगीत की रचना हो सकती है। इसा कारण उन्होने पल्लब को भूमिका में निराला के मुक्त छन्द का विरोध किया था। पन्त ने काव्य में वर्णिक छन्दो को अपेक्षा मात्रिक छन्दों को अधिक महत्त्व दिया है, परन्त प्रगतिवादी होने पर पन्तजी अलंकारों के समान छन्दों के बन्धन का भी विरोध करने लगे थे।