History, asked by kerbabhaskar, 11 months ago

साने गुरुजी द्वारा लिखा हुआ पत्र हिंदी​

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Answered by satanu735
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साने गुरुजी

साने गुरुजी का जीवन-परिचय

कोकण के पालगड में साने गुरुजी के पिता सदाशिवराव रहते थे । वे भू-स्वामी (जमीनदार) थे । भू-स्वामी का घराना साधारणतः धनी समझा जाता है और उनके दादा के समय उनके घर की स्थिति इसी प्रकार की थी । किंतु, पिता श्री सदाशिवराव के समय परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी अधिक बिगड गई कि अंग्रेज सरकार ने उनका पूरा घर उनसे छीनकर, घर से निकाल दिया । इस बडे किंतु निर्धन परिवार में २४ दिसंबर, १८९९ को साने गुरुजी का जन्म हुआ । गुरुजी की माता का नाम यशोदा था ।

बचपन से ही गुरुजी का अपनी मां से बहुत लगाव था । उन्होंने, ‘श्यामची आर्इ ’ नामक मराठी पुस्तक में अपनी मां की संपूर्ण स्मृतियां लिखी हैं । उनकी मां ने उनके बालक मनपर जो विविध संस्कार किए थे, उसीके बलपर गुरुजी का जीवन विकसित हुआ । सभी से प्रेम करने का संस्कार साने गुरुजी को अपनी मां से ही मिला था । साने गुरुजी का मन अत्यंत भावुक एवं संस्कारक्षम था । इसीलिए, उनमें मांद्वारा बोए गए सुविचारों के बीज शीघ्रता से विकसित हुए ।

साने गुरुजी का वांङमय

साने गुरुजी के रचे हुए वाङमयों की संख्या विपुल है । उपन्यास, लेख, निबंध, काव्य, जीवनी, नाट्यसंवाद आदि साहित्य के विविध क्षेत्रों में बिना थके उनका लेखन कार्य जारी था । उनके लेखन शैली से उनकी लगन, स्नेह, प्रेम आदि भावनाओं की होती है । उनकी भाषा में एक विशिष्ट प्रकार की धार है तथा उनका साहित्य बोधगम्य है । लोगों को उनका सरल भाषा में लेखन अच्छा लगा ।

उन्होंने अपना संपूर्ण साहित्य समाज के उद्धार के लिए ही लिखा है । उनके मन में राजनीतिक, सामाजिक एवं शिक्षाक्षेत्र से संबंधित जो विचार आते थे, जो भावनाओं का संघर्ष चलता था, वह सब उन्होंने अपनी लेखनीद्वारा व्यक्त किया है । कला केवल अपनी उन्नति के लिए होनी चाहिए, ऐसे विचारों से उन्होंने अपने लेख कभी नहीं लिखे । अपने लेखों में समाज से संबंधि विचार और अनुभव व्यक्त किए हैं ।

अनेक सामान्य घरेलू प्रसंगोंपर उन्होंने ऐसे लेख लिखे हैं, जो हृदय को छू जाते हैं ! गुरुजी का वाङमय वृद्धों से छोटे बालकोंतक सभी के लिए था । उन्होंने युवकों के लिए पथप्रदर्शक उपन्यास, जीवनी अदि लिखीं, वयस्कों के लिए उपन्यास एवं निबंध लिखे । इस विपुल साहित्य में दो तेजस्वी ग्रंथ हैं, ‘श्यामची आर्इ’ और ‘श्याम’ !

आंतरभारती

गुरुजी ने एक और महान कार्य किया है, ‘आंतरभारती’की स्थापना ! प्रांत-प्रांत के मध्य चल रही ईष्र्या अभी तक समाप्त नहीं हुई है । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जातीयता भारत की अखंडता के लिए घातक सिद्ध होगी । इस कटुता को समाप्त करने के लिए एक प्रांत का दूसरे प्रांत के प्रति द्वेषभाव नष्ट हो, सब में बंधुप्रेम उत्पन्न हो, इसके लिए उन्होंने आंतर भारती का प्रयोग आरंभ करने का प्रयत्न किया था । इसका उद्देश्य था, विभिन्न प्रांत के लोग एक-दूसरे की भाषा सीखें, उनकी प्रथा परंपरा समझें । इसके लिए पैसा इकठ्ठा कर विभिन्न प्रांतीय भाषाएं सीखने के लिए उद्यत विद्यार्थीयों के लिए प्रसिद्ध कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन समान कुछ व्यवस्था हो, ऐसी अपनी इच्छा उन्होंने महाराष्ट्र साहित्य सम्मेलन के भाषण में व्यक्त की थी । इसके लिए उन्होंने कुछ पैसा भी इकठ्ठा किया था । परंतु, यह कार्य पूरा होने के पहले ही दिनांक ११ जून १९५० को उनका देहावसान हो गया ।

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