सुनिल गावस्कर,प.ल.देशपांडे(संशोधक),न्युटन,मेरीकँम यांच्याविषयी माहिती गेळा करा व लिहा . त्याच्या कार्याशी जुळनारी चित्र वहीत चिटकवा.
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मेरी बहन की शादी पिछले साल दिसंबर में हुई। वैसे ही जैसे बाकी लड़कियों की होती है - माँ-पिताजी ने लड़का पसंद किया और शादी तय कर दी। न जान, न पहचान, उसने भी 'हाँ' कह दिया।
शादी हुई और ससुराल गई। ससुराल में पहला दिन - घर में रसोई खुलने की रसम। इसमें नई दुल्हन नई रसोई में अपने हाथों से कुछ मीठा बनाती है। ये हुई उपर की बात। जैसे जैसे दिन बितते गए वो अपने आप को रसोई में ही पाने लगी - सब के लिए कुछ न कुछ 'प्यार' से बनाते हुए! (मुझे समझ नहीं आया, दुल्हनपर बाकियों को प्यार नहीं आता क्या?) बाहर आनेपर पती की सेवा, और रसोई में घरवालों की सेवा। तब उसे समझा उस रसम का मतलब था अब उसकी जगह रसोई में ही है।
'सभ्य' लोगों में कोई सीधी बात नहीं करता, 'सभ्य' तरीकों से संदेश पहुँचाया जाता है। ज़बरदस्ती के नाम पर तो तौबा करते है। बहन को कभी किसीने नहीं कहा की घर की सफाई, पकाना, सबकी सेवा उसे करनी है। मगर 'सभ्य' तरीकों से उसतक ये बात पहुँच गई। उसकी पहचानही खाना बनाने और सेवा करने से होने लगी। दिन बीत रहे थे और उसकी अपनी ख्वाहिशे भी है, ये वो ससुराल में किसे बताए? ये सवाल उठने लगा। पती को बताया बहुत काम हो रहा है तो - "हर लड़की को करना पड़ता है" यही जवाब मिला।
ससुराल में कुछ दिनों बाद जब पगफेरे में मायके आयी तब थोड़ी राहत मिली। मगर अब यहाँ सब पहले जैसे नहीं था - उसके माँ - पिता अब उसे पराया समझने लगे थे। कुछ भी करना हो तो 'पति से पूछकर' करना, अब ये तेरा घर नहीं जल्द ही चले जाना - ऐसी 'सलाह' उसे मिलने लगी।
बचपन से जिस घर में वो रही कुछ पलों में पराया हो गया। पती का घर, पती का है, उसके के लिए ससुराल ही रहेगा ये बात उसे साफ हो गई। कुछ दिन पहले जब हम मिले तो रोने लगी। कहने लगी "बेघर लगता है। कौन 'अपने' समझ नहीं आता। ससुराल है, मायका है, मगर मैं घर ढूंढ रही हूँ.."
ये शब्द मेरे कानों में अब तक गुंजते है। इस शहर में कितनी 'बेघर' घर ढूंढ रही होंगी??!
ये कुछ आज की बात नहीं है। कई सालों से इस तरह महिलाओं का व्यवहार चलता आया है। इसे रोटी-बेटी व्यवहार के नाम से भी पहचाना जाता है। समाज में शादी संपत्तीपर अधिकार जमाए रखने के लिए और संतान प्राप्त करने के लिए ही किया जाता था। ये आज भी बदला नहीं है। बस इसका मुखौटा बदल गया है। आज भी लड़की जिस घर में पैदा होती है उस घर में बोझ या पराया 'धन' जैसे ही पलती है।