संन्यासी ने दयापूर्वक कहा- “निःसंदेह तुम्हें दुख उठाना पड़ा होगा। तुम्हारा मुख लाल हो रहा है। घोड़ा भी बेदम हा गया हा
क्या तुम्हारे संगी बहुत पीछे रह गए ?"
इसका उत्तर राजकुमार ने बिल्कुल बेपरवाही से दिया, मानो उसे इसकी कुछ भी चिंता न थी।
संन्यासी ने कहा, "यहाँ ऐसी कड़ी धूप और आँधी में खडे तुम कब तक उनकी राह देखोगे? मेरी कुटी में चलकर जरा विश्राम
कर लो। तुम्हें परमात्मा ने ऐश्वर्य दिया है, कुछ देर के लिए संन्यासाश्रम का रंग भी देखो, वनस्पतियों और नदी के शीतल जल को
स्वाद लो।" यह कहकर संन्यासी ने उस मृग के रक्तमय मृत शरीर को ऐसी सुगमता से उठाकर कंधे पर धर लिया, मानो वह एक घास
का गट्ठर था, और राजकुमार से कहा, “मैतो प्राय: कगार से ही नीचे उतर जाया करता हूँ, किंतु तुम्हारा घोड़ा संभव है, न उतर सके
अतएव एक दिन की राह छोड़कर छह मास की राह चलेंगे। घाट यहाँ से थोड़ी ही दूर है और वहीं मेरी कुटी है।"
राजकुमार
संन्यासी के पीछे चला। उसे संन्यासी के शारीरिक बल पर अचंभा हो रहा था। आधे घंटे तक दोनों चुपचाप चल
रहे। इसके बाद ढालू भूमि मिलनी शुरु हुई और थोड़ी ही दूर में घाट आ पहुँचा। वहीं कदंबकुंज की घनी छाया में जहाँ सर्वदा मृगों क
में
सभा सुशोभित रहती, नदी की तरंगों का मधुर स्वर सर्वदा सुनाई दिया करता है, जहाँ हरियाली पर मयूर थिरकता, कपोतादि पक्षी म
होकर झूमते, लता-द्रुमादि से सुशोभित संन्यासी की एक छोटी-सी कुटी थी।
संन्यासी की कुटी हरे-भरे वृक्षों के नीचे सरलता और संतोष का चित्र बना रही थी। राजकुमार की अवस्था वहाँ पहुँचते ही ब
गई थी। यहाँ की शीतल वायु का प्रभाव उसपर ऐसा पड़ा जैसा मुरझाते हुए वक्षों पर वर्षा का) उसे आज विदित हुआ कि तृप्ति
स्वादिष्ट व्यंजनों ही पर निर्भर नहीं है और न निद्रा सुनहरे ताकियों की ही आवश्यकता रखती है।
१) i) आकृति पूर्ण कीजिए:
i
संन्यासी के लिए इन दोनों में कोई अंतर नहीं था-
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wla po ako naintindihan!!
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thanks sa points
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