सूरदास के दूसरे पद मे कौन सा अलंकार hai
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दृष्टकूट ऐसी कविता को कहते हैं जिसका अर्थ केवल शब्दों के वाचकार्थ से न समझा जा सके बल्कि प्रसंग या रूढ़ अर्थों से जान जाय।
उदाहरण -
हरिसुत पावक प्रगट भयो री।
मारुत सुत भ्राता पितु प्रोहित ता प्रतिपालन छाँड़ि गयो री।
हरसुत वाहन ता रिपु भोजन सों लागत अँग अनल भयो री।
मृगमद स्वाद मोद नहिं भावत दधिसुत भानु समान भयो री।
वारिधि सुतपति क्रोध कियो सखि मेटि धकार सकार लयो री।
सूरदास प्रभु सिंधुसुता बिनु कोपि समर कर चाप लयो री। --- (सूरदास)
पहेली को भी दृष्टकूट कहा जाता है।शब्द, संस्कृत के "दृष्ट' तथा "कूट' शब्दों से बना है, जिसका साहित्यिक अर्थ है 'जो सहज रूप से देखने सुनने पर समझा न जा सके'। तिल की ओट पहाड़, दृष्टिछलन इत्यादि, अर्थात् साहित्य के समर्थक अंग श्लेषादि शब्दालंकारों से आवृत ऐसे अनेकार्थवाची शब्दों की योजना, जिनका अर्थ उसके शब्दों की अपेक्षा रूढ़ि वा प्रसंग से जाना जा सके। वस्तुत: इस यौगिक शब्द "दृष्टकूट' की अर्थगूढ़ता तथा जटिलता ही उसकी विशेषता है, जो अक्षरों में उलझी होने के कारण दुर्बोध तथा तद्गत शब्दों की भूलभुलइयों में छिपी रहती है।दृष्टकूट शब्दार्थ का इतिहास उसके अंशविशेष कूट को लेकर पुराना है। वह वेद और उपनिषदों में ब्रह्म, जीव तथा जगत् अर्थों को व्यक्त करनेवाले कितने ही शब्दों का सहारा पाकर आगे बढ़ा और महाभारत रचना के समय नाना शब्दों से समृद्ध बना। वहाँ शब्दब्रह्म का अपने नाना भाँति के अर्थ व्यक्त करनेवाला खिलवाड़ दर्शनीय है। भक्तिसाहित्य की अमल संस्कृत कृति "भागवतंरसमालय' में भी उसकी छटा का यत्र तत्र सुंदर रूप देखने योग्य है। संस्कृत काव्यग्रंथों (शाकुंतल, माघ और "हर्षचरित' इत्यादि में भी) इस अर्थदुर्गम काव्य के कमनीय दर्शन जहाँ तहाँ होते हैं।
हिंदी, विशेषकर ब्रजभाषा साहित्य, में इस शब्द-ब्रह्म-रूप "दृष्टकूट' रचना का प्रवेश कब हुआ, कुछ कहा नहीं जा सकता, फिर भी वह डिंगल कवि नल्ह (सं. १२७२ वि.) के "बीसलदेवरासो' तथा मैथिल कवि विद्यापति (सं. १४२५ वि.) की पदावली में प्रारंभिक जीवनयापन कर सूरदास (सं. १५३५ वि.), अष्टछाप विमलवाणी पदावली में काफी फला फूला। पुरालोकनमस्कृत इतिहासग्रंथ महाभारत लिखते समय जिस प्रकार व्यासवाणी को समझ बूझकर लिखने में कुछ क्षण विरमना पड़ता था, उसी भाँति श्री सूर कृत दृष्टिकूट कीर्तनरचना में गाई गई "एतेचांश कला पुंस: कृष्णस्तुभगवान्स्वयं' (श्रीमद्भागवत १। ३। २८) की संयोगवियोगात्मक भाँति-भाँति की लोकपावन लीलाओं के रसमय गूढ़ रहस्यों को समझने में कुछ जूझना पड़ता है, इस दृष्टकूट रचनाशैली को हिंदी साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपनाया, किंतु बहुत कम। फिर भी जो दो एक पद आपने इस प्रकार के रचे वे हिंदी साहित्य की शोभा हैं।
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