स्थानीय पर्क की उचित रखरखाव को लेकर दो मित्रों के बीच होने वाले संवाद को लिखिए
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रविवारीय पुस्तकालय चला रहा है। अवसर और संसाधन जुटने पर हम खेल और क्राफ्ट की गतिविधियाँ भी आयोजित करते हैं। हर रविवार बच्चे पिछली किताबें बदलकर नई किताब लेते हैं, कुछ खेलकूद व बातचीत भी हो जाती है। सारा कार्यक्रम खुले आसमान के नीचे होने से अधिकांश लायब्रेरी बारिश के 3 महीने बन्द रहती हैं। इस दौरान जहाँ हम बच्चों को मिस करते हैं वे भी ऐसा ही महसूस करते हैं।
पुस्तकालय के लिए हमने ऐसी बस्तियों का चयन किया है जहाँ मुख्यतः निर्धन परिवार निवास करते हैं। यहाँ माता-पिता के साथ बच्चे भी भरण-पोषण की समस्याओं से जूझते रहते हैं। थोड़े बड़े होते ही लड़के कमाने और लड़कियाँ घर की देखभाल के साथ ही बाहर के कार्यों में व्यस्त हो जाती हैं। बहुत छोटे बच्चे धमा-चौकड़ी में मस्त व व्यस्त। इन सबका सीधा असर बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के साथ उनके स्वास्थ्य और व्यवहार पर भी पड़ता है। बच्चों की स्कूली पढ़ाई पर घर में ध्यान न दे सकने के कारण पढ़ाई में पिछड़ने के कारण स्कूल से अरुचि, अनुपस्थिति, ड्रॉप आउट का सिलसिला चल पड़ता है। समाज में भी इन बच्चों को उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा जाता है। यूँ तो बच्चे अपने ही ढंग से खुश रहने के तरीके खोज लेते हैं पर कई बार ये तरीके उचित नहीं होते हैं।
बच्चों में पढ़ने-लिखने के प्रति रुचि जगाने, खेलकूद का अवसर देने, क्रिएटिविटी को उभारने, सकारात्मक कार्यों और खुशनुमा माहौल में समय बिताने का अवसर देकर उनमें आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जगाने और उनकी दक्षताओं को विकसित करने की दिशा में हमने यह केन्द्र चलाने की कोशिश की है।
हमने जो लक्ष्य रखे हैं वो थोड़े अदृश्य और मुश्किल जान पड़ते हैं, पर जो लोग बच्चों के साथ काम करते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि निश्छल प्यार, अपनेपन और विश्वास से कुछ भी मुश्किल नहीं है। हमारी कोशिशों के दौरान हुए अनुभवों को पढ़ते समय आप इसकी सत्यता को महसूस भी करेंगे। फिलहाल इस कोशिश के इतिहास में झाँकिए।
पृष्ठभूमि
अपने घर-परिवार के साथ अपने समाज के प्रति भी इंसान के फर्ज होते हैं, इसलिए हमें समाज की बेहतरी के लिए भी कुछ न कुछ करना चाहिए। इसी भावना से प्रेरित हम लोग अलग-अलग क्षेत्रों में अपने कार्यों के साथ व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से समाज हित के कार्यों में लगे रहे हैं। कोई गर्मियों में पक्षियों की प्यास बुझाने के लिए गाँव और शहरों में पानी के पात्र बाँटते हुए लोगों को प्रेरित कर रहा था। कोई पुराने खिलौनों को एकत्र करके और उनकी टूट-फूट की मरम्मत करके दूरदराज के आदिवासी अँचल की आँगनबाड़ियों में पहुँचाकर बच्चों के मुख पर मुस्कान लाने की कोशिश में रहता। कभी किताब-कॉपियाँ बाँटते, तो कभी स्कूलों में विज्ञान की गतिविधियों को प्रोत्साहित करते। किसी ने शहर के विस्तार से उपजी बसाहट के बच्चों के लिए उनके पास ही स्कूल खोलने के लिए प्रयास किए और सफल भी हुए। अवसर मिलने पर अपने रुतबे और साधनों को गरीब बच्चों के बेहतर विकास के लिए उपयोग किया। कोई बच्चों और महिलाओं के हित के लिए विभिन्न संस्थाओं से जुड़कर काम करते। अपने मित्रों के साथ कभी दूरदराज के गाँवों में तो कभी शहर की बस्तियों के बच्चों के लिए शैक्षिक सहयोग के साथ ही पुस्तकालय, खेल व क्रियात्मक गतिविधियों के संचालन की व्यवस्था जुटाते और अन्यान्य लोगों को भी इस कार्य से जोड़ते। इस दौरान हमारा मिलना-जुलना भी होता रहा।
हममें कुछ बातें कॉमन थीं। जिसमें सबसे मुख्य बात यह कि हम शिक्षा को सामाजिक बदलाव का महत्वपूर्ण जरिया मानते हैं। शिक्षा वो जो सोचने-समझने और अभिव्यक्त करने का कौशल विकसित करे। जो रटे रटाए प्रश्न-उत्तरों से हटकर हो, जो ज्ञान को अपने आसपास की दुनिया से जोड़कर देखने की समझ विकसित करे। इसके लिए जरूरी है बच्चों से संवाद हो, उनकी बात सुनी जाए, उनकी राय ली जाए। इसके लिए जरूरी है बच्चों को अहमियत दी जाए, उनसे संवाद हो, उनकी बात सुनी जाए, उनकी राय ली जाए। हमारा यह भी मत है कि वर्तमान स्कूली तंत्र में इसकी गुंजाईश कम है। बच्चों के व्यक्तित्व और शैक्षणिक विकास में खेलों और कलाओं के महत्व को भी हम समझते हैं, साथ ही यह भी जानते हैं कि निर्धन परिवार के बच्चों को स्कूल की किताबों के अलावा अन्य किताबें देखने-पढ़ने को नहीं मिलती हैं। पालकों की गरीबी के अलावा इन मुद्दों पर उनकी अनभिज्ञता भी बच्चों को छोटी-छोटी चीजें जैसे कागज, पेन्सिल, कलर आदि से वंचित रखती है।
ऐसे में हमने सोचा कि हम लोग मिलकर शहर के कुछ बच्चों को तो ये अवसर और साधन उपलब्ध करा ही सकते हैं। इस तरह ‘चहक’ की नींव पड़ी।
योजना
हमारा अपना अनुभव ये कहता था कि अगर आप कोई भी अच्छा काम ईमानदारी से करें तो संसाधनों की कभी कमी नहीं पड़ती। तो बस इसी विश्वास के आधार पर हमने काम शुरू किया और आप आगे देखेंगे कि हमारा विश्वास सत्य ही सिद्ध हुआ।
किताबों के लिए सबसे पहले याद आई ‘एकलव्य’ संस्था की जिसके साथ काम का हमारा अपना अनुभव था। भोपाल मुख्यालय में अपनी योजना बताई तो पचास किताबों का सैट तुरन्त मिल गया, आगे भी सहायता आश्वासन के साथ। कुछ किताबें हमने खरीदी भी। किताबों पर लगाने के लिए ‘चहक’ की सील बनवाई गई, बच्चों के बैठने के लिए दरी खरीदी गई। सील-ठप्पे लगाकर किताबें तैयार की गई, वितरण के लिए रजिस्टर लाया गया।
इसी बीच पुस्तकालय की शुरुआत करने के लिए बस्ती का चयन चलता रहा। शहर की 8-10 बस्तियाँ ऐसी थीं जहाँ काम करने की जरूरत थी। पर अपनी सीमाओं के चलते सिर्फ इमलीपुरा से शुरू करने का योजना बनी। इस बस्ती में 2- 3 साल पहले बच्चों के लिए चित्रकला की कार्यशाला आयोजित कर चुके थे। यहाँ घूम-घूमकर लोगों से बात कर बताया कि अब हम यहाँ पुस्तकालय खोल रहे हैं आप अपने बच्चों को भेजें, काफी लोग तैयार हो गए। पुस्तकालय संचालित करने के लिए बस्ती में एक खुले सार्वजनिक स्थान को हमने अपना अड्डा बनाया।