सिंधु का जल कविता का भावार्थ
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'सिन्धु का जल' कविता अशोक चक्रधर ने लिखी है | इसमें कवि ने सिंधु के जल की भावनाएं व्यक्त की है |
सिंधु का जल कहता है कि मैं वर्षों से लगातार गतिमान हूं और मेरे जीवन की यही पहचान है | सिंधु नदी की सभ्यता काफी पुरानी है | धरती पर जब सभ्यता का उदय हुआ तो वह इसी तट पर हुआ था और अनेक संस्कृतियों ने यहां पर जन्म लिया और वह इसी तट पर पनपीं |
सिंधु नदी के जल को कोई भी इंसान अपने प्रयोग में ले सकता है चाहे वह किसी भी धर्म का हो चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान हो इस नदी ने कभी भी किसी से कोई भी भेदभाव नहीं किया है |
लेकिन इसके घाट पर जब लड़ाई होती हैं और खून बहता है तो पता नहीं कितने लोग शहीद हो जाते हैं और यह चीज सिंधु नदी को व्याकुल कर देती है |
मैं निरंतर गतिमान हूं और यही मेरे जीवन की पहचान है मेरे स्वर में कल कल के धनी हैं सिंधु नदी का जल हूं धरती पर सभ्यता का उदय मेरे ही तट पर हुआ था मेरी किनारों पर संस्कृतियों परंतु इंसानियत सैलरी मेरी गति कभी बंद नहीं हुई मेरी गति चंचल है परंतु मेरी भावना चल है मैं सिंधु नदी का पवित्र जल हूं मेरे जल में जो लोग स्नान करने आते हैं मैं उनसे कभी भी उनकी जाति और धर्म के बारे में नहीं पता मैं तो बस जीवन के सारे को जानता हूं मेरी रहलो सदा आगे बढ़ने के लिए चलती रहती है उनमें जीवन है मेरे जल में प्यास बुझाने जो लोग आते हैं मैं उनसे कभी नहीं पूछता कि वह मेरे दोस्त या दुश्मन मैं मैं हटाने से पहले लोगों से यह नहीं पूछता कि मुस्लिम है या हिंदू सबके लिए है मैं चाहता हूं कि आने वाले सब्जी भरकर को पानी छोटी नदिया दौड़ी दौड़ी आती और मुझ में समा जाती है संस्कृत में घुल मिल जाते हैं लेकिन क्या बताऊं कैसे बताऊं कभी-कभी में खून आता है या होती है तथा वातावरण गूंज उठता है धमाके होते हैं और शहीद हो जाते हैं मेरे लिए थे मैंने कहा से आए हैं यहां से आए थे कहां से आए थे मैं तो सबके गांव का हूं उनके नेत्रों से निकलते हैं प्यार मनुष्य में किसी भी सिंधु नदी हूं मेरी लैला तू अपना प्रतिबिंब दिखाता हूंहै जीलू सिंधु यानी धरती पर सभ्यता का आरोप आदि बिंदुओं मेरे ही किनारों पर संस्कृतियों ने सांस ली है मेरे ही तटों पर इंसानियत के यज्ञ हुए हैं गति का भी मना हुई मेरी गति में चंचल पर भावना में अच्छा हूं मैं सिंधु नदी का पावन जल हूं मैं सिंधु नदी का पावन जल हूं मैं नहाने वाले से नहीं पूछता उसकी जात उसका मजहब उसका धर्म में तो बस जानता हूं जीवन का मर्म वह जो सांसे चलती है सदा जिंदगी केवल मचलती है प्यास बुझाने से पहले मैं नहीं पूछती दोस्त या दुश्मन मेल मिटाने में हटाने से पहले नहीं पूछती मुस्लिम है या हिंदू मैं तो सबका हूं और जी भर के पी ए छोटे-छोटे संस्कृति या नदियों दौड़ी दौड़ी आती हैं मुझ में सभ्यता समाती है घुल मिल जाती है लेकिन क्या बताऊं और कैसे हो कभी कभी बहुत बहता हुआ आता है लहू जब मेरे घाटों पर खनकती है तलवारे गूंजती है तो करती है तो होते हैं धमाके और शहीद होते हैं रन बकरे बाकी मैं नहीं पूछता की बेटी कहा कि मैं नहीं देखता कि मैं यहां के ही कहा कि मैं तो सबका घाव देता हूं विधवा की आंखों में आंसू बनकर में ही तो रोता हूं ऐसे बहू या वैसे प्यार ही मनुष्य बताओ कैसे में सिंधु के में बिंदु बिंदु में सिंधु हूं और आते विवो में झिलमिलाती हिंदू
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